अभय कुमार दुबे का कॉलम:  लोगों की नियमित आमदनी बढ़ाना सरकार के लिए जरूरी
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अभय कुमार दुबे का कॉलम: लोगों की नियमित आमदनी बढ़ाना सरकार के लिए जरूरी

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4 घंटे पहले

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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर - Dainik Bhaskar

अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर

इस सप्ताहांत में अपना नया बजट पेश करते समय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को कई सवालों का जवाब देना होगा। इन सवालों की मुख्य तौर पर तीन वजहें हैं। पहली, तेजी से गिरता रुपया। दूसरी, स्टॉक मार्केट में अरसे से चल रही गिरावट। और तीसरी, नवम्बर में खत्म हुई तिमाही में वृद्धि दर के घटकर 5.4 फीसदी हो जाने से पैदा हुए अंदेशे।

पिछले साल इसी तिमाही में वृद्धि दर 8 प्रतिशत निकली थी। यह आंकड़ा कोविड के बाद सबसे कम है। रुपए की गिरावट और स्टॉक मार्केट की मंदी के कारण वैश्विक हैं। वृद्धि-दर के मामले में सरकार यकीन दिला रही है कि अगली दो तिमाहियों में वृद्धि दर बढ़ जाएगी।

कैसे? बताया गया है कि खेती के क्षेत्र में अर्थव्यवस्था अच्छा कर रही है जिससे ग्रामीण मांग बढ़ जाएगी, उपभोग बढ़ेगा और वृद्धि दर में इजाफा हो जाएगा। सरकार की बातों पर भरोसा करना बुरी बात नहीं। लेकिन मान लेने से पहले यह पड़ताल कर लेनी चाहिए कि 5.4 फीसदी की वृद्धि दर क्या कहती है।

पहला सवाल तो हमें यह पूछना चाहिए कि सरकार को खेती में जो प्रगति की संभावना दिखाई दी है, वह उद्योग और सेवा में क्यों नहीं दिखाई पड़ रही है? आखिरकार जीडीपी में खेती की हिस्सेदारी 15 फीसदी ही तो होती है। जबकि उद्योगों का योगदान 25 और सेवा क्षेत्र का 55 फीसदी माना जाता है।

यानी अगर कृषि में बेहतरी होगी तो वृद्धि दर पर ज्यादा से ज्यादा डेढ़ फीसदी का असर होगा। इसलिए अगर वृद्धि दर को बढ़ाना है तो खेती के साथ-साथ उद्योग और सेवा में बेहतरी लाना जरूरी है। सरकार के पास इन दोनों क्षेत्रों में बढ़ोतरी की क्या योजना है?

दूसरा सवाल हमें यह पूछना चाहिए कि क्या इस 5.4% में असंगठित क्षेत्र का प्रदर्शन भी शामिल है? ध्यान रहे कि संगठित क्षेत्र हमारे देश के सौ रोजगारशुदा लोगों में से केवल छह को ही रोजगार दे पाता है। बाकी 94 लोगों की गुजर-बसर असंगठित क्षेत्र के दम पर होती है।

क्या सरकार असंगठित क्षेत्र के आंकड़े जमा करती है? नहीं। उसने अर्थव्यवस्था के इस विशाल क्षेत्र को आंकड़ों की दृष्टि से अदृश्य कर दिया है। यानी यह 5.4% की वृद्धि दर असल में केवल संगठित क्षेत्र (मुख्यत: कॉर्पोरेट और सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों) के प्रदर्शन पर आधारित है।

सरकार असंगठित क्षेत्र पर कब ध्यान देना शुरू करेगी, और अभी तक उस पर ध्यान न देने वाली नीति उसने क्यों अपना रखी है? असंगठित क्षेत्र नोटबंदी, जीएसटी और कोविड का मारा हुआ है। वह लगातार गिरावट पर है। अगर उसकी गिरावट को नाप लिया जाए और फिर जीडीपी के आंकड़े निकाले जाएं तो यह 5.4% का आंकड़ा भी डेढ़-दो फीसदी कम दिखने लगेगा।

तीसरा सवाल हमें यह पूछना चाहिए कि उपभोग बढ़ने से मांग में बढ़ोतरी जरूर होती है, लेकिन सरकार निवेश को बढ़ाने के बारे में क्या सोच रही है? हम जानते हैं कि उपभोग का बढ़ना अच्छी बात है, पर निवेश का बढ़ना और भी अच्छी बात है।

इस बार के आर्थिक सर्वेक्षण में चिंता जताई गई थी कि निजी क्षेत्र कई तरह के प्रोत्साहन देने के बावजूद निवेश नहीं कर रहा है। उसकी तिजोरियां लाखों करोड़ रुपयों की नकदी से भरी पड़ी हैं। स्वयं सरकारी क्षेत्र की कम्पनियों के पास भी लाखों करोड़ की नकदी है। पर वे भी नया निवेश नहीं कर रही हैं। जब तक अर्थव्यवस्था में नया निवेश निजी क्षेत्र की तरफ से नहीं होगा, तब तक उद्योग और सेवा क्षेत्र में कोई उछाल नहीं आ सकता।

चौथा सवाल हमें यह पूछना चाहिए कि ट्रम्प की वापसी से पैदा हुई राजनीतिक-आर्थिक अनिश्चितताओं और सम्भावित संकटों से निपटने के लिए सरकार के पास क्या ब्लू प्रिंट है? ट्रम्प-जनित समस्याओं का सीधा और तुरंत असर भारत के आर्थिक विकास पर पड़ेगा।

पिछली बार भी ट्रम्प ने भारत को अमेरिका के जनरल प्रेफरेंस की सूची से हटा दिया था। भारत के कई निर्यातों पर टैरिफ जड़ दिए थे। इस बार तो उन्होंने पहले ही कहना शुरू कर दिया था कि भारत टैरिफ किंग है। पांचवां सवाल हमें यह पूछना चाहिए कि आम लोगों की नियमित आमदनी बढ़ाने के लिए सरकार क्या करने वाली है?

केंद्र सरकार के ई-श्रम पोर्टल पर तीस करोड़ लोगों ने अपना रजिस्ट्रेशन करवा रखा है। इस बड़ी संख्या के 94% का कहना है कि वे दस हजार रुपए मासिक या उससे कम ही कमा पाते हैं। 2022-23 के एनएएसएसओ के आंकड़े भी आ गए हैं।

घरेलू उपभोग के इन आंकड़ों से भी जाहिर है कि भरपूर खुशहाली केवल ऊपर के 5% लोगों को ही नसीब है। देश की जनता का भविष्य मुफ्त अनाज और छोटी-मोटी राहतों का हमेशा मोहताज नहीं रह सकता।घरेलू उपभोग के आंकड़ों से जाहिर है कि भरपूर खुशहाली केवल ऊपर के 5 प्रतिशत लोगों को ही नसीब हो पाई है। लेकिन देश की जनता का भविष्य मुफ्त अनाज और छोटी-मोटी राहतों का हमेशा तो मोहताज नहीं रह सकता। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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