आरती जेरथ का कॉलम:  दिल्ली के चुनावों में वोटों का गणित बहुत दिलचस्प है
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आरती जेरथ का कॉलम: दिल्ली के चुनावों में वोटों का गणित बहुत दिलचस्प है

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4 घंटे पहले

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आरती जेरथ राजनीतिक टिप्पणीकार - Dainik Bhaskar

आरती जेरथ राजनीतिक टिप्पणीकार

दिल्ली के चुनावों में कांग्रेस जीत तो नहीं सकती, लेकिन उसका प्रदर्शन नतीजों को प्रभावित करेगा। अगर कांग्रेस चुनावों में अच्छा करती है, तो भाजपा को फायदा होगा। और अगर यह 2013 में दिल्ली की सत्ता खोने के बाद से अपने लगातार खराब रहे प्रदर्शन को दोहराती है, तो अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी लगातार तीसरी बार सत्ता में वापसी करेगी।

आंकड़े खुद ही सब कुछ बयां कर देते हैं। आप दिल्ली में कांग्रेस को नुकसान पहुंचाकर उभरी थी और उसने जिस दलित, मुस्लिम और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के मतदाता-आधार को अपने पाले में किया, वह पहले कांग्रेस का वोटर था।

शीला दीक्षित की लोकप्रियता के चरम पर 40% वोट-शेयर हासिल करने वाली कांग्रेस को 2020 के पिछले विधानसभा चुनाव में सिर्फ 5.5% वोट मिले थे। उसके वोट भाजपा को ट्रांसफर नहीं हुए। वे केजरीवाल के पास चले गए।

दिल्ली में कांग्रेस और आप के प्रदर्शन में कितना संबंध है, यह वहां पर 2022 में नगर निगम चुनावों में भी नजर आया था। आप को उम्मीद थी कि एमसीडी चुनावों में शानदार जीत के साथ वह दिल्ली के शासन-तंत्र पर अपना नियंत्रण मजबूत कर लेगी। लेकिन फरवरी 2021 में डोनाल्ड ट्रम्प की यात्रा के दौरान दिल्ली के कुछ हिस्सों में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान अपनी चुप्पी से उसे मुस्लिम वोटों की कीमत चुकानी पड़ी।

कांग्रेस का वोट-शेयर इतना बढ़ गया कि वह अल्पसंख्यक बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में चुनिंदा सीटें जीत गई, जिससे उसे एमसीडी में अप्रत्याशित बढ़त मिली। वहीं आप को वैसी बड़ी जीत नहीं मिली, जिसकी उसे उम्मीद थी।

नतीजा यह हुआ कि केजरीवाल की पार्टी को मामूली बहुमत मिला। उसमें भी अब सेंध लग चुकी है, क्योंकि भाजपा ने नियमों की खामियों का फायदा उठाकर अपने समर्थकों को एमसीडी में नामित किया और आप के कुछ पार्षदों को तोड़कर अपने को लगभग आप के बराबर ले आई।

आंकड़ों के खेल की इसी पृष्ठभूमि में दिल्ली के चुनाव होने जा रहे हैं। चूंकि इस बार नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं- जैसा कि हरियाणा और महाराष्ट्र के परिणामों ने साबित किया है- इसलिए यह भविष्यवाणी करना नासमझी होगी कि दिल्ली में कौन जीतेगा। लेकिन कुछ रुझान स्पष्ट हैं। आप और भाजपा के वोट-शेयर के बीच का अंतर लगभग 20% है।

ऐसे में कांग्रेस के द्वारा अपने कुछ पुराने वोटों को वापस जीत लेना भर भाजपा की जीत के लिए पर्याप्त नहीं होगा। राजधानी में अगली सरकार बनाने के लिए उसे आप के वोटों का एक बड़ा हिस्सा भी जीतना होगा। हालांकि चुनिंदा सीटों पर कांग्रेस के वोटों में थोड़ी-सी भी बढ़ोतरी आप की सीटें घटा सकती है। वर्तमान में विधानसभा की 70 में से 62 सीटें आप के पास हैं।

उदाहरण के लिए, नई दिल्ली के कस्तूरबा नगर निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस के उम्मीदवार अभिषेक दत्त कड़ी टक्कर दे रहे हैं और अपनी लोकप्रियता और नगर पालिका पार्षद के रूप में वर्षों तक किए गए अपने काम के दम पर जीत हासिल कर सकते हैं। इससे आम आदमी पार्टी को नुकसान होगा, क्योंकि 2013 से यह सीट उसके पास है।

आज की स्थिति के अनुसार, भाजपा के लिए सबसे अच्छा परिदृश्य दिल्ली विधानसभा में आप की संख्या को कम करना होगा, या तो खुद अधिक सीटें जीतकर या यह उम्मीद करके कि कांग्रेस कुछ सीटें हासिल कर ले।

अगर केजरीवाल तीसरी बार जीतते हैं, तो यह एक बड़ी जीत होगी क्योंकि उन्होंने अपने राजनीतिक कैरियर को मौजूदा चुनाव नतीजों पर दांव पर लगा दिया है। उनकी सीटों की संख्या में गिरावट भाजपा के इस प्रचार को बल देगी कि आबकारी नीति मामले में भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में रहने के बाद उनकी अपील फीकी पड़ रही है।

कांग्रेस को इस बात का पूरा अहसास है कि उसका अच्छा प्रदर्शन भाजपा के पक्ष में जा सकता है, इसलिए उसने अपने प्रचार-अभियान को धीमा कर दिया है। पार्टी के विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार, राहुल गांधी ने संकेत दिया है कि जिन सीटों पर पार्टी को जीत का भरोसा है, उन्हें छोड़कर दूसरी सीटों पर आक्रामक तरीके से आगे नहीं बढ़ना चाहिए।

यह तर्क कांग्रेस कार्यकर्ताओं के लिए मनोबल गिराने वाला है, लेकिन वे समझते हैं कि उनकी बड़ी राजनीतिक लड़ाई भाजपा के खिलाफ है, न कि आप के। इस गणित ने प्रचार-अभियान की चमक को लगभग खत्म कर दिया है। वोटरों का मूड भी उदासीन है। वैसे भी दिल्ली की अधिकांश शक्तियां उपराज्यपाल के पास हैं, सीएम के पास नहीं। तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन जीतेगा?

कांग्रेस को अहसास है कि उसका अच्छा प्रदर्शन भाजपा के पक्ष में जा सकता है, इसलिए उसने अपने प्रचार-अभियान को धीमा कर दिया है। यह कार्यकर्ताओं के मनोबल को गिराने वाला है। प्रचार-अभियान की चमक फीकी पड़ गई है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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