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- Kaushik Basu’s Column In This Era Of Misinformation, Challenges Have Also Increased A Lot
7 घंटे पहले
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कौशिक बसु विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनाॅमिस्ट
पूरी दुनिया में ही आज लोकतंत्र चुनौतियों का सामना कर रहा है। लेकिन इसका कारण यह नहीं है कि तानाशाह चुनी हुई सरकारों को उखाड़ फेंक रहे हैं और सत्ता पर कब्जा कर रहे हैं। सत्तावादी नेताओं का बढ़ता प्रभाव अब भी सुर्खियां बनाता है, लेकिन वे स्वतंत्र समाजों के लिए सबसे बड़ा खतरा नहीं रह गए हैं। वास्तविक खतरा अधिक घातक है : लोकतांत्रिक प्रणालियों में धीरे-धीरे किन्तु बहुत गहरे बदलाव।
ऊपर से देखने पर सब ठीक लगता है। चुनाव बदस्तूर हो रहे हैं और मतदाता उन नेताओं को चुन रहे हैं, जिनके बारे में उनका मानना है वे उनके हितों का प्रतिनिधित्व करेंगे। लेकिन अक्सर वे ऐसे राजनेताओं को चुन लेते हैं, जो केवल अपने हितों की रक्षा करते हैं। हालांकि वोटरों का बहकावे में आना कोई नई बात नहीं, लेकिन अब यह इतना व्यापक हो गया है कि लोकतांत्रिक शासन की बुनियाद के लिए खतरा बन गया है।
दुनिया भर के आम लोग आज जोशो-खरोश से उन नेताओं का समर्थन कर रहे हैं, जिन्हें उनकी परवाह नहीं। लोकसेवा के प्रति इन नेताओं की प्रतिबद्धता शोचनीय है। वे अपने और अपने साथियों (क्रोनीज़) के लिए अधिक से अधिक सम्पदा और सत्ता की खोज में लगे रहते हैं।
मुख्यधारा के अर्थशास्त्री और राजनीतिक वैज्ञानिक लंबे समय से ‘मध्यमार्गी मतदाता सिद्धांत’ पर भरोसा करते आ रहे हैं, जिसके मुताबिक बहुमतवादी चुनावी प्रणाली में राजनेता स्वाभाविक रूप से मध्यमार्गी मतदाताओं की प्राथमिकताओं की ओर आकर्षित होंगे, क्योंकि चुनाव जीतने के लिए उन्हें आकर्षित करना आवश्यक है। लेकिन आज के गहराते राजनीतिक ध्रुवीकरण और नेताओं में कट्टरपंथी रुख अपनाने की बढ़ती प्रवृत्ति से पता चलता है कि यह धारणा अब टिक नहीं पाती।
इस बदलाव का सोशल मीडिया के उदय के साथ गहरा संबंध है। आज डिजिटल प्लेटफॉर्म सूचनाप्रद विमर्श को बढ़ावा देने के बजाय गलत सूचना फैलाने के शक्तिशाली उपकरण बन गए हैं, जिससे अवसरवादी नेता आसानी से लोगों को गुमराह करने और उन्हें प्रभावित करने में सक्षम हो गए हैं।
प्राचीन एथेंस में अपनी स्थापना के बाद से ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनेक परिवर्तन हुए हैं। जैसे-जैसे प्रौद्योगिकी आगे बढ़ती है, पहले की लोकतांत्रिक प्रणालियों की कुछ विशेषताएं पुरानी होती जाती हैं। नैतिक मानदंडों के विकास से भी मौलिक सुधार हो सकते हैं।
उदाहरण के लिए, रोमन गणराज्य में उच्च पदस्थ अधिकारियों और धनी लोगों के वोटों का महत्व आम नागरिकों के वोटों से अधिक हुआ करता था। लेकिन आज हम इसे स्वीकार्य नहीं मानते। इसी तरह जैसे-जैसे लोकतंत्र विकसित हुआ, स्थिरता की आवश्यकता स्पष्ट हो गई।
इसके परिणामस्वरूप ही संविधानों की शुरुआत हुई। यद्यपि संविधान में संशोधन किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए साधारण बहुमत से अधिक की आवश्यकता होती है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मुख्य संवैधानिक संस्थाओं में मनचाहे बदलाव न किए जा सकें।
लोकतांत्रिक शासन पर बढ़ते दबाव के कारण दुनिया एक बार फिर अपने को एक महत्वपूर्ण मोड़ पर पाती है। डिजिटल प्लेटफॉर्मों और सोशल मीडिया के उदय ने सुपर-रिच लोगों को जनमत को आकार देने के लिए नए साधन उपलब्ध करा दिए हैं। मतदाताओं को लगता है कि वे लोकतंत्र में सक्रिय भागीदार हैं, जबकि वास्तविक सत्ता कुछ ही लोगों के हाथों में केंद्रित है।
इस प्रकार की असमानता पर अंकुश लगाना न केवल एक नैतिक अनिवार्यता है; बल्कि लोकतंत्र को अधिनायकवाद के खतरे से बचाना भी आवश्यक है। इस उद्देश्य के लिए, हमें एक ऐसी कर प्रणाली की आवश्यकता है, जो इनोवेशन और उद्यमशीलता को बाधित किए बिना धन और आय का पुनर्वितरण करे।
जब सुपर-रिच लोग समृद्धि के एक निश्चित स्तर पर पहुंच जाते हैं तो वे अधिक धन कमाने की इच्छा से नहीं, बल्कि अपने जैसे धनकुबेरों से आगे निकलने की लालसा से प्रेरित होते हैं। इसमें एक ऐसे कर को लागू करने का अवसर है, जिसे मैं ‘अकॉर्डियन टैक्स’ कहता हूं।
इसमें उच्च आय वालों पर कर लगाकर उससे प्राप्त राजस्व को कम आय वालों के बीच इस तरह से पुनर्वितरित किया जाता है कि अमीरों के बीच सापेक्ष रैंकिंग बरकरार रहे। लेकिन विषमता का मुकाबला करना अकेले देशों के बूते की बात नहीं, इसके लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग भी आवश्यक है।
आज डिजिटल प्लेटफॉर्म सूचनाप्रद विमर्श को बढ़ावा देने के बजाय गलत सूचना फैलाने के शक्तिशाली उपकरण बन गए हैं, जिससे अवसरवादी नेता आसानी से लोगों को गुमराह करने और उन्हें प्रभावित करने में सक्षम हो गए हैं। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)