चेतन भगत का कॉलम:  सरकार के खर्चों में कटौती के लिए नई सोच की जरूरत है
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चेतन भगत का कॉलम: सरकार के खर्चों में कटौती के लिए नई सोच की जरूरत है

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3 घंटे पहले

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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार - Dainik Bhaskar

चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार

अमेरिका में ट्रम्प की जीत के बाद ‘DOGE’ (डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी या ‘डोज’) की स्थापना चर्चाओं में है। उद्यमी इलोन मस्क और राष्ट्रपति पद के पूर्व उम्मीदवार विवेक रामास्वामी के नेतृत्व में काम करने जा रहा ‘डोज’ कोई सरकारी विभाग नहीं है।

यह एक सलाहकार संस्था है, जिसका सीधा संपर्क ट्रम्प से होगा। यह सरकार के खर्चों को कम करने और उसे अधिक कुशल बनाने के तरीके खोजेगा। मस्क और रामास्वामी दोनों ही अरसे से छोटी सरकार के समर्थक रहे हैं।

भारत में भी ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस का नारा दिया गया था। हो सकता है कि ‘डोज’ के आइ​डिया में हमारे लिए भी कुछ काम का हो और उसकी मदद से हम अपनी सरकार को और अधिक कुशल बनाना सीख सकें।

ये सच है कि पैसा खर्च किए बिना सरकारों का काम नहीं चल सकता। वेतन देना, कार्यालय चलाना, कल्याणकारी योजनाएं लागू करना, सब्सिडी देना, बुनियादी ढांचा बनाना, रक्षा, स्वास्थ्य सेवा, पुलिस, शिक्षा- इन सभी में खर्च होता है। इसलिए यह कहना तो बेमानी होगा कि सभी सरकारी खर्च बेकार हैं। लेकिन किसी देश की अर्थव्यवस्था के आकार की तुलना में सरकारी खर्च हमेशा अपेक्षाकृत बड़ा होता है।

यही कारण है कि ‘छोटी सरकार’ या ‘न्यूनतम सरकार’ जैसे शब्द सापेक्ष हैं। लेकिन हम सरकार को थोड़ा और अधिक कुशल बनाने का प्रयास जरूर कर सकते हैं। और क्योंकि सरकारें बहुत पैमाने पर खर्च करती हैं, इसलिए बचाई गई छोटी राशि भी बड़ी बन जाती है।

‘डोज’ के बारे में अधिक जानकारी देने के लिए, मस्क और रामास्वामी ने ‘द वॉल स्ट्रीट जर्नल’ में एक खुला पत्र लिखा। इसमें उन्होंने कहा कि हमारे देश की स्थापना इस मूल विचार पर हुई थी कि हम जिन लोगों को चुनते हैं, वे सरकार चलाएंगे। लेकिन आज ऐसा नहीं है।

अधिकांश कानून नौकरशाहों द्वारा प्रस्तावित होते हैं। अधिकांश सरकारी खर्च लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति या उनके द्वारा नियुक्त राजनेताओं द्वारा नहीं, बल्कि लाखों अनिर्वाचित सिविल सेवकों द्वारा किए जाते हैं। और वे जानते हैं कि सिविल-सेवा सुरक्षा के कारण वे बर्खास्त नहीं किए जा सकते।

क्या यही बात हमारे देश भारत के लिए भी सही नहीं है? ये सच है कि केंद्रीय बजट पर शीर्ष नेताओं द्वारा हस्ताक्षर किए जाते हैं। लेकिन प्रस्तावित योजनाएं और वास्तविक खर्च के आंकड़े अक्सर नौकरशाहों के दिमाग की ही उपज होते हैं। क्या यह संभव नहीं कि कुछ खर्चों की जांच करके उन्हें अधिक कुशलतापूर्ण बनाया जा सके?

मान लें कि सरकार का कुल खर्च-बजट लगभग 50 लाख करोड़ रुपए है। अगर हम इन लागतों का 5% भी बचा सकें तो यह 2.5 लाख करोड़ की बचत होगी। यह भारत द्वारा एक वर्ष में एकत्र किए जाने वाले कुल सीमा-शुल्क के बराबर है। या कुल जीएसटी या कुल आयकर या कॉर्पोरेट कर-संग्रह का लगभग एक चौथाई।

इस बचाए गए पैसे को बेहतर परियोजनाओं के लिए खर्च किया जा सकता है। इससे देश के सरकारी खजाने की सेहत भी सुधर सकती है। इसका परिणाम कम मुद्रास्फीति और कम ब्याज दरों के रूप में हो सकता है। कम ब्याज दरें अधिक निवेश, नौकरियों और आर्थिक विकास की ओर ले जाती हैं।

क्या हम ऐसा कर सकते हैं? मस्क और रामास्वामी ने अपने पत्र में कहा था कि हम आंत्रप्रेन्योर हैं, राजनेता नहीं। हम अधिकारियों या कर्मचारियों के बजाय बाहरी वालंटियरों की तरह काम करेंगे। हम रिपोर्ट नहीं लिखेंगे या रिबन नहीं काटेंगे, लेकिन हम खर्चों में कटौती करेंगे।

यह तो समय ही बताएगा कि ‘डोज’ क्या हासिल कर पाता है। लेकिन उसका बाहरी लीडरशिप का ​विचार समझदारी भरा लगता है। ‘डोज’-इंडिया का नेतृत्व भी नेताओं-नौकरशाहों के इकोसिस्टम से नहीं आ सकता। और सेवानिवृत्त अधिकारियों और न्यायाधीशों से भी नहीं।

मैं उनके खिलाफ नहीं हूं, लेकिन खर्चों में कटौती के लिए एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। और ये वो ही लोग कर सकते हैं, जिन्होंने अपना जीवन कुशल बनने की कोशिश में बिताया है। इस मायने में आंत्रप्रेन्योर लोग काम के हैं।

वैसे भी हमारे पास ऐसे बेहतरीन व्यापारिक-समुदायों की कमी नहीं, जो लागत कम रखने में माहिर हैं। इसमें कुछ अनुभवी बिजनेस-लीडर्स को भी जोड़ा जा सकता है। उनके लिए शीर्ष तक सीधी पहुंच भी जरूरी है।

ट्रम्प और मस्क एक-दूसरे के करीब हैं। मस्क के सुझावों पर ट्रम्प जरूर ध्यान देंगे। हमें भारत में भी इसी बात की जरूरत है कि परियोजनाओं का नेतृत्व करने वालों की बात प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री सीधे सुन सकें।

टेक्नोलॉजी और डेटा की मदद से वेलफेयर योजनाओं को और दक्षतापूर्ण बनाया जा सकता है। अभी तो उनमें से बहुतेरी 2011 के आउटडेटेड मॉडल पर चल रही हैं। सच कहें तो दुनिया के हर देश को DOGE की जरूरत है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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