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- Jean Dreze’s Column It Is Not Right To Look At Free Ration Or Pension As A “rewadi”
9 घंटे पहले
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ज्यां द्रेज प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री व समाजशास्त्री
कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर एक साधारण-सी तस्वीर को लेकर खूब चर्चा हुई थी। यह तस्वीर तेलंगाना के एक बुजुर्ग दलित दम्पती नरसैया और गंगम्मा की थी। नरसैया और गंगम्मा के बच्चे गुजर चुके हैं, और बुढ़ापे के कारण वे खेत मजदूरी नहीं कर पाते हैं। वे मुख्यतः मनरेगा के तहत हर साल 100 दिन के काम, 2000 रुपए प्रति माह पेंशन और सार्वजनिक वितरण प्रणाली से महीने में 12 किलो मुफ्त चावल से अपना गुजारा करते हैं।
इस तस्वीर को देखकर कई पाठक खुश हुए। लेकिन कई अन्य लोगों ने इन सामाजिक लाभों पर आपत्ति जताई और इन्हें रेवड़ी या भीख कहा। उनके अनुसार गरीबों को कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलना चाहिए। कुछ लोगों ने तर्क दिया कि अगर गरीबों को मुफ्त में पैसे मिलेंगे तो वे काम करना बंद कर देंगे। दूसरों ने आगे बढ़कर कहा कि गरीब लोगों की मदद करना हमारी जिम्मेदारी नहीं है।
मनरेगा के तहत रोजगार तो निश्चित रूप से रेवड़ी नहीं है। नरसैया और गंगम्मा के गांव में मनरेगा मजदूरों ने भूमि विकास जैसे कई उपयोगी काम किए हैं। वे 300 रुपए प्रतिदिन की मामूली मजदूरी के पूरी तरह हकदार हैं।
पेंशन और चावल तो उन्हें मुफ्त में ही मिलता है। लेकिन इन्हें भी भीख समझना अजीब है। याद रखें कि नरसैया और गंगम्मा जैसे व्यक्तियों की स्थिति सदियों के शोषण का परिणाम है। जमीन, सम्पत्ति, शिक्षा, नौकरी, सत्ता, सिफारिश, सम्पर्क- ये सभी संसाधन उनकी पहुंच से बाहर रहे हैं। इस ऐतिहासिक अन्याय के लिए उन्हें कुछ मुआवजा तो मिलना चाहिए।
मान लीजिए कि कोई व्यक्ति रात में आपकी सारी सम्पत्ति लूट ले और फिर सुबह वापस आकर आपको कुछ पैसे दे दे। क्या आप इस पैसे को रेवड़ी कहेंगे? हां, आपको नकद मुफ्त मिल रहा है। लेकिन यह पहले से ही आपसे चुराया गया था।
आप इस उदाहरण से हैरान हो सकते हैं, मैं इसे समझाने की कोशिश करता हूं। अमीर लोग अक्सर सोचते हैं कि उनकी कमाई उनकी कड़ी मेहनत का नतीजा है। इसलिए उन्हें लगता है कि वे इसके हकदार हैं और इसे दूसरों के साथ साझा नहीं करना चाहते। लेकिन सच्चाई यह है कि उनकी मेहनत अपने आप में उनकी सफलता में बहुत छोटा हिस्सा निभाती है।
उनका काम उन संसाधनों के विशाल भंडार से उत्पादक बनता है, जो हमें पिछली पीढ़ियों से विरासत में मिले हैं, जैसे पूंजी, ज्ञान, तकनीक, संस्थान, सुविधाएं अादि। इन संसाधनों को हम समाज की सामूहिक पूंजी कह सकते हैं।
इस बात को समझने के लिए, कल्पना कीजिए आपको अपनी आजीविका अकेले अपने श्रम से चलानी है, बिना किसी सामूहिक पूंजी की मदद से। तब शायद आप मिट्टी की झोपड़ी में रह रहे होते और जंगली फल-फूल खा रहे होते। सामूहिक पूंजी ही उत्पादक और आसान जीवन जीने में आपकी मदद करती है।
नरसैया और गंगम्मा जैसे लोगों को इस सामूहिक पूंजी से वंचित किया गया है। इसलिए जब उन्हें पेंशन जैसे सामाजिक लाभ मिलते हैं, तो वे उस व्यक्ति की तरह होते हैं, जिसे रात में लूटने के बाद सुबह कुछ पैसे दिए जाते हैं। यह पेंशन रेवड़ी नहीं है, यह हमारी सामूहिक सम्पत्ति में से उनके हिस्से का एक छोटा-सा टुकड़ा है। आप इसे सामाजिक लाभांश कह सकते हैं।
कहा जाता है कि कई राज्यों में सामाजिक लाभ बड़े बजट-घाटे के लिए जिम्मेदार हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हम नरसैया और गंगम्मा जैसे लोगों के लिए और बहुत कुछ कर सकते हैं। हालांकि, इसके लिए हमें सामूहिक पूंजी पर उनके सही दावे को स्वीकार करना होगा। इससे हमें अमीरों पर कर लगाने, फालतू खर्च को कम करने और सामाजिक लाभों को बढ़ाने की इच्छाशक्ति मिलेगी।
यदि आप इस बात से आश्वस्त नहीं हैं कि नरसैया और गंगम्मा जैसे लोगों के लिए और भी बहुत किया जाना सम्भव है, तो मेरा सुझाव है कि आप रीतिका खेड़ा की नई पुस्तक “रेवड़ी या हक’ पढ़ें। यह सामाजिक सुरक्षा को लेकर एक बहुत सुंदर प्रवेशिका है। इस सहज पुस्तक को पढ़कर न केवल आपकी समझ बढ़ेगी, आपका दिल भी बढ़ेगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)