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- Pawan K. Verma’s Column Congress Now Needs A Change At The Basic Level
3 घंटे पहले
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पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक
कांग्रेस पार्टी को अगर पुनर्जीवित होना है तो इसके लिए पहले अपने में आमूलचूल बदलाव लाना होगा। 8-9 अप्रैल को गुजरात के अहमदाबाद में होने वाला एआईसीसी का अगला सत्र इसका एक अवसर है। पार्टी को पुनर्जन्म की जरूरत है, क्योंकि वह भारत के जिस विचार का प्रतिनिधित्व करती है, वह अभी भी प्रासंगिक है। लेकिन उसे इसलिए बदलना होगा, क्योंकि वह आज जिस रूप में मौजूद है, वह चुनावी तौर पर उस विचार को कायम रखने में असमर्थ है।
कांग्रेस की विचारधारा- जैसी कि उसके संस्थापकों ने कल्पना की थी- लोकतंत्र, मानवाधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सर्वधर्म-समभाव की थी। जब पार्टी सत्ता में रही, तब इन आदर्शों का जब-तब उल्लंघन जरूर किया जाता रहा- आपातकाल इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है- लेकिन उसका व्यापक दृष्टिकोण अभी भी कायम है। हालांकि 1984 के लोकसभा चुनावों के बाद से- जब उसे 48.1 प्रतिशत वोट मिले थे- कांग्रेस कभी भी अपने दम पर सत्ता नहीं हासिल कर पाई है।
उसका वोट-प्रतिशत 2014 के बाद से औसतन लगभग 20 प्रतिशत रहा है, जबकि 1977 की पराजय में भी पार्टी को 34.5 प्रतिशत वोट मिले थे। इससे भी बुरी बात यह है कि पार्टी में पुनरुत्थान के कोई संकेत नहीं नजर आ रहे।
जमीनी स्तर से लेकर ऊपर तक पार्टी का समूचा पुनर्गठन ही इसका इकलौता समाधान है। चिंतन शिविर या अन्य सतही बदलावों से कोई फायदा नहीं होने वाला है। जब शरीर वेंटिलेटर पर हो तो बैंड-एड कारगर नहीं होता।
मूल समस्या यह है कि कांग्रेस संगठनात्मक रूप से निष्क्रिय हो गई है। उसके जमीनी ढांचे और कैडर की ताकत ढह गई है। इसलिए, कांग्रेस तो आज भी खड़ी है, लेकिन बिना नींव के। ऐसी स्थिति में पार्टियां केवल बयानबाजी के स्तर पर ही काम कर सकती हैं।
1984 के चुनावों में लोकसभा में सिर्फ 2 सीटें जीतने से लेकर 2014 में भाजपा के बहुमत में आने और उसके बाद लगातार दो कार्यकालों में सत्ता में वापसी करने तक का कारण यह है कि उसने अपने जमीनी संगठन, कैडर (संघ स्वयंसेवकों सहित) और विचारधारा पर ध्यान केंद्रित किया है। कांग्रेस ने इनमें से पहले दो को लंबे समय से नजरअंदाज किया है और तीसरे पर वह लड़खड़ा रही है।
कांग्रेस के पतन के तीन प्रमुख नतीजे रहे हैं। सबसे पहले, भाजपा के अलावा किसी अन्य प्रभावी राष्ट्रीय पार्टी की अनुपस्थिति संसदीय लोकतंत्र के कामकाज को विकृत करती है। हमारे पास राज्यों में मजबूत विपक्षी दल जरूर हैं, लेकिन एक सुसंगत राष्ट्रीय विपक्ष की अनुपस्थिति बहुत बड़ा अभाव रचती है।
दूसरे, अपने निरंतर क्षरण को देखते हुए कांग्रेस विपक्ष में केंद्रीय भूमिका नहीं निभा सकती है। भाजपा एनडीए में वह भूमिका निभाती है। इसके विपरीत, कांग्रेस को इंडिया गठबंधन के घटक-दल एक जोड़ने वाली चीज के बजाय एक बोझ के रूप में देखते हैं। इससे केवल विपक्ष के आंतरिक विरोधाभास बढ़ते हैं और लोकतांत्रिक संतुलन गड़बड़ाता है।
तीसरे, पार्टी के खस्ताहाल के बावजूद उसमें ठहराव और गतिरोध की स्थिति है। इससे पार्टी कार्यकर्ता और हतोत्साहित होते हैं और नेताओं का पलायन बढ़ता है। कोई आश्चर्य नहीं कि हाल ही में गुजरात में राहुल गांधी ने अपने ही नेताओं पर भाजपा के साथ मिलीभगत करने का आरोप लगा दिया था।
गांधी परिवार की तिकड़ी भले ही नेक इरादे वाली हो, लेकिन वे हालात को सुधारने में लगातार नाकाम रहे हैं। वे एक ऐसी मंडली से घिरे हैं, जो जानबूझकर प्रतिभाशाली नेताओं से दूरी बनाती है। वे झूठी आत्मसंतुष्टि से ग्रस्त रहते हैं और उम्मीद करते हैं कि एक दिन भाजपा खुद लड़खड़ा जाएगी और उन्हें सत्ता सौंप देगी। यह आत्मघाती सोच है, क्योंकि भाजपा के पीछे हटने के हाल-फिलहाल तो कोई संकेत नहीं दिखते हैं, और कांग्रेस अगर इसी तरह चलती रही तो शायद तब तक वह खत्म हो चुकी होगी।
भौतिकी हमें बताती है कि जब कोई वस्तु अपना द्रव्यमान खो देती है तो वह डगमगाने लगती है और ढह जाती है। लेकिन इस प्रक्रिया में, ऊर्जा निकलती है। उसी ऊर्जा पर यह दारोमदार है कि वह कांग्रेस के विचार के प्रति निष्ठावान नेताओं और कार्यकर्ताओं को प्रेरित करे कि वे विद्रोह करें और पुराने को खत्म करके नया लाएं।
एआईसीसी के आगामी सत्र में जो आवश्यक है, वह है कठोर छानबीन और बुनियादी बदलाव। सवाल यही है कि अहमदाबाद में हम हमेशा की तरह खुशामद का नजारा देखेंगे या फिर वहां पर अधिक साहस का प्रदर्शन किया जाएगा?
जमीनी स्तर से लेकर ऊपर तक कांग्रेस पार्टी का समूचा पुनर्गठन ही इकलौता समाधान है। चिंतन शिविर या अन्य सतही बदलावों से अब कोई फायदा नहीं होने वाला है। जब शरीर वेंटिलेटर पर हो तो बैंड-एड कारगर नहीं होता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)