बरखा दत्त का कॉलम:  आज एल्गोरिदम के जाल में फंस चुका है न्यूज मीडिया
टिपण्णी

बरखा दत्त का कॉलम: आज एल्गोरिदम के जाल में फंस चुका है न्यूज मीडिया

Spread the love


  • Hindi News
  • Opinion
  • Barkha Dutt’s Column Today News Media Is Trapped In The Web Of Algorithms

2 घंटे पहले

  • कॉपी लिंक
बरखा दत्त फाउंडिंग एडिटर, मोजो स्टोरी - Dainik Bhaskar

बरखा दत्त फाउंडिंग एडिटर, मोजो स्टोरी

वर्ष 1995 में जब मुझे न्यू देल्ही टेलीविजन लिमिटेड (एनडीटीवी) में साउंड इंजीनियर और प्रोड्यूसर के रूप में अपनी पहली नौकरी मिली थी, तब भी भारत में एयरवेव्ज़ पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में हुआ करती थीं। समाचार के लिए आप केवल दूरदर्शन का ही सहारा ले सकते थे।

वह एक पब्लिक ब्रॉडकास्टर था और कड़े नियंत्रण में समाचार प्रसारित करता था। उसके समाचार-प्रस्तोता अत्यंत संयमित हुआ करते थे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि केंद्र में कौन-सी सरकार थी, लेकिन राज्यसत्ता ही तय करती थी कि आप समाचार में क्या देखेंगे।

यहां तक कि जब एयरवेव्ज़ थोड़ी खुलीं और एनडीटीवी और इंडिया टुडे को अंग्रेजी और हिंदी में 30 मिनटों के न्यूज बुलेटिन बनाने का काम सौंपा गया; तब भी कोई न कोई सरकारी अधिकारी हर स्टोरी की स्क्रिप्ट को प्रसारित होने से पहले जांचता था।

आज भारत में 393 निजी सैटेलाइट समाचार चैनल हैं। लेकिन समाचारों के इस विस्फोट- जिसके लिए 90 के दशक के उत्तरार्ध की सूचना क्रांति जिम्मेदार थी- ने एक दूसरे किस्म के नियंत्रण की शुरुआत की- बाजार का नियंत्रण।

विज्ञापन कम थे और उनके उम्मीदवार बहुत ज्यादा, अच्छी रेटिंग पाने का बेतहाशा दबाव था, सम्पादकीय नीति अब सेल्स के आंकड़ों से अलग नहीं हो सकती थी। न्यूज चैनल टीआरपी के स्वर्णमृग के पीछे भागने लगे। सभी चैनल अपने बैनर हेडलाइन में सबसे ज्यादा देखे जाने वाले चैनल होने का दावा करते थे और प्राइम टाइम डिबेट में जमकर शोर मचाते थे।

पर जैसे-जैसे तकनीक ने मीडिया-जगत में प्रवेश की बाधाओं को कम किया, टीवी न्यूज की गुणवत्ता में गिरावट आने लगी और बेहतर प्रतिभाएं डिजिटल मीडिया की ओर जाने लगीं। हममें से जो लोग आज यूट्यूब और गूगल को अपने कंटेंट वितरण के प्राथमिक साधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं, वे आमतौर पर खुद को ‘कॉर्पोरेट’ ब्रॉडकास्ट न्यूजरूम से अलग ‘स्वतंत्र मीडिया’ बताते हैं। पर क्या वाकई ऐसा है?

मैं कहना चाहूंगी कि हम मी​डिया-नियंत्रण के तीसरे दौर में प्रवेश कर चुके हैं। परम्परागत न्यूज चैनल पर सरकार का नियंत्रण था, सैटेलाइट टीवी चैनलों पर टीआरपी का और अब तीसरा नियंत्रण एल्गोरिदम का है। आज किसी भी प्रकार की रिपोर्टिंग में मेरी कम से कम आधी ऊर्जा तो इस बात पर खर्च होती है कि कैप्शन एसईओ (सर्च इंजिन ऑप्टिमाइजेशन) के लिए अनुकूल है या नहीं या थम्बनेल फोन स्क्रॉल के लिए पर्याप्त आकर्षक है या नहीं।

एल्गोरिदम की यह बाध्यता आपको कंटेंट में विविधता लाने से भी रोकती है, क्योंकि बहुतेरे दर्शक केवल एक ही तरह का कंटेंट देखना चाहते हैं। मैं इस बात को वास्तव में बहुत अच्छी तरह से समझती हूं कि आज ‘क्लिकबेट’ हेडलाइंस इतनी आम क्यों हो गई हैं।

एक ऐसी बेहतरीन स्टोरी का कोई मतलब नहीं, जिसे कोई भी सर्च में नहीं खोज सकता हो। या इससे भी बदतर यह कि उस स्टोरी पर किसी ने क्लिक ही नहीं किया, क्योंकि उसे आकर्षक तरीके से लिखा या प्रस्तुत नहीं किया गया था।

डिजिटल युग में हम एक और तरह से भी बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। इंटरनेट पक्षपात को पसंद करता है। शायद इसलिए क्योंकि आजकल लोग कंटेंट का उपभोग अपने फोन पर करते हैं। यह रात नौ बजे समाचार बुलेटिन के इर्द-गिर्द पूरे परिवार के इकट्ठा होने से कहीं ज्यादा अंतरंग मामला है।

ऐसे में दर्शक उन खबरों की ओर ज्यादा आकृष्ट होते हैं, जो उनकी विचारधारा, नजरिए, पूर्वाग्रहों और पक्षपात की पुष्टि करती हों। बारीकियों और जटिलताओं को अब गुजरे जमाने की चीज मान लिया गया है। मुझे कई बार सलाह दी गई है कि मैं ज्यादा ‘ओपिनियनेटेड’ रहूं, यानी तेज गति से ज्यादा सब्स्क्राइबर्स हासिल करने के लिए अपने विचारों को अधिक दृढ़ता से प्रस्तुत करूं और अपने लहजे को थोड़ा और तीव्र बनाऊं।

एक ऐसे समय में- जब करंट अफेयर्स का सरल विवरण देने वाले ‘इंफ्लूएंसर्स’ हर जगह छाए हुए हैं- मीडिया के अनुभवी लोग भी प्रासंगिक और लोकप्रिय बने रहने के लिए ध्रुवीकरण के जाल में फंस गए हैं- वे दो में से किसी एक खेमे में पाए जाते हैं।

मैं अब तक उसी तथ्य-आधारित पत्रकारिता पर कायम बनी हुई हूं, जिससे मैं सबसे पहले प्रभावित हुई थी, इसके साथ ही मैं नए प्रारूपों और शैलियों को सीखने के लिए भी पूरी तरह खुली हुई हूं। लेकिन भविष्य अनिश्चित है। जैसा कि चार्ल्स डिकेंस ने कहा था, वह सबसे अच्छा समय था, लेकिन वह सबसे बुरा भी था!

एल्गोरिदम की बाध्यता कंटेंट में विविधता लाने से रोकती है, क्योंकि बहुत सारे दर्शक केवल एक ही तरह का कंटेंट देखते हैं। मैं इस बात को अच्छी तरह से समझती हूं कि आज ‘क्लिकबेट’ हेडलाइंस इतनी आम क्यों हो गई हैं। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

खबरें और भी हैं…



Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *