मकरंद परांजपे का कॉलम:  बांग्लादेश में हो रही घटनाएं बहुत सवाल खड़े करती हैं
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मकरंद परांजपे का कॉलम: बांग्लादेश में हो रही घटनाएं बहुत सवाल खड़े करती हैं

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9 घंटे पहले

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मकरंद परांजपे लेखक, चिंतक, जेएनयू में प्राध्यापक - Dainik Bhaskar

मकरंद परांजपे लेखक, चिंतक, जेएनयू में प्राध्यापक

बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ हिंसा और उनके पूजास्थलों के साथ तोड़फोड़ की खबरें लगातार आ रही हैं। वहां पर हिंदुओं से जान बचाने के लिए अपनी पहचान छिपाने के लिए कहा जा रहा है। ये घटनाएं हमें यहूदियों के साथ अत्याचारों और विभाजन के दंगों के दौरान हिंदुओं के साथ हुई हिंसा की याद दिलाती हैं।

ऐसा नहीं है कि विभाजन के दौरान या उसके बाद में उपमहाद्वीप के रक्त-रंजित इतिहास में मुसलमानों के खिलाफ कोई हिंसा नहीं हुई। लेकिन जो बात अब स्पष्ट होती जा रही है, वो यह है कि दो किस्म की धार्मिक हिंसाओं को एक जैसा ठहराने की कोशिशें करना, या भगवा-आतंक का हौवा खड़ा करना अब नहीं चलेगा।

बांग्लादेश आज इतिहास के एक ऐसे चौरस्ते पर खड़ा है, जहां उसके सामने अस्तित्व का संकट है। ऐसे समय में, कोई एक व्यक्ति अकसर आशा और प्रतिरोध का प्रतीक बन जाता है। हमने इसे बार-बार देखा है। पोलैंड में लेक वालेसा, दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला, म्यांमार में आंग सान सू की और उससे भी पहले, भारत में महात्मा गांधी, तिब्बत में दलाई लामा और बांग्लादेश के स्वतंत्र होने पर शेख मुजीबुर रहमान- इसके कुछ उदाहरण हैं। तो क्या अब इस्कॉन के चिन्मय कृष्ण दास अनजाने में ही बांग्लादेश में हिंदू-उत्पीड़न के प्रतिकार का एक प्रतीक बन गए हैं?

इस्कॉन एक अहिंसक, शुद्ध शाकाहारी सम्प्रदाय है, जिसके नियम बहुत सख्त हैं। यह एक कीर्तन और सेवा आधारित अभियान है, जिसकी शुरुआत ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने की थी। प्रभुपाद ने गौड़ीय चैतन्य वैष्णव धारा या भक्ति आंदोलन के तत्वों से एक सुधारवादी अंतरराष्ट्रीय सम्प्रदाय बनाया, जिसकी जड़ें 16वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु से जुड़ी हैं।

बांग्लादेश की इस्कॉन इकाई ने इस मामले में अपना रुख स्पष्ट करते हुए एक बयान जारी किया। उसने कहा कि अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ (इस्कॉन) बांग्लादेश में हाल ही में हुई हिंसा की घटनाओं की निंदा करता है तथा धार्मिक समुदायों के बीच शांति और सहयोग का आह्वान करता है।

उसने दावा किया कि इस्कॉन पर अनुचित तरीके से काम करने का गलत आरोप लगाया गया है। इस्कॉन ने इन हमलों में एक पैटर्न, यहां तक ​​कि एक साजिश का भी आरोप लगाया। इस्कॉन ने आगे कहा कि वह पूरी तरह से अहिंसक, गैर-राजनीतिक, गैर-पक्षपाती और गैर-सांप्रदायिक आध्यात्मिक संगठन है, जिसकी 50 से अधिक वर्षों की बेदाग विरासत है। बांग्लादेश तो क्या, दुनिया में कहीं भी, किसी भी तरह की चरमपंथी गतिविधियों में इस्कॉन की संलिप्तता का एक भी उदाहरण नहीं है।

चिन्मय कृष्ण दास का कोई नायक या शहीद बनने का इरादा नहीं था। लेकिन अपने साथियों की हत्या और हिंदू मंदिरों को जलाने के बाद, वे बांग्लादेश में हिंदू प्रतिरोध का चेहरा बन गए। वे बांग्लादेश सनातन जागरण मंच के प्रवक्ता बने।

उन्होंने अपना नैतिक कर्तव्य निभाया, लेकिन आज देशद्रोह के अपराध में उन्हें जेल में ठूंस दिया गया है। उनका गुनाह क्या है? उन पर भगवा ध्वज को बांग्लादेश के झंडे से ऊपर रखने का आरोप लगाया गया है। जबकि जमात-ए-इस्लामी- एक कट्टरपंथी पार्टी, जो शेख हसीना के बाद बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा का नेतृत्व कर रही है- को अक्सर इस्लामी और जमात के झंडे को बांग्लादेश के झंडे से ऊपर रखते हुए देखा गया है।

हमने यह भी देखा है कि कैसे जमात और अन्य तथाकथित छात्र कार्यकर्ता भारत के प्रति अनादर जताने के लिए तिरंगे को रौंद रहे हैं। इसकी तुलना में चिन्मय कृष्ण दास के खिलाफ लगाया गया आरोप- अगर वह सच है तो भी- एक मामूली उल्लंघन की तरह ही लगता है। शायद इसके लिए भी वे स्वयं जिम्मेदार न हों।

बांग्लादेश आज जैसी राजनीतिक अराजकता और धार्मिक हिंसा में फंसता जा रहा है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है? मौजूदा कार्यवाहक सरकार, जिसका नेतृत्व मोहम्मद यूनुस कर रहे हैं? अमेरिका- जिसके बारे में कई लोगों का दावा है कि तख्तापलट के पीछे उसका हाथ था? या आंशिक रूप से भारत सरकार- जो इस तरह के घटनाक्रम का अनुमान लगाने में असमर्थ थी, उसे रोकने की तो बात ही छोड़िए?

मौजूदा हालात में उसने बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा की निंदा करने वाले बयान जारी करने के अलावा- कम से कम खुले तौर पर तो- कुछ नहीं किया है। धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की भूमिका भी इसमें उल्लेखनीय रूप से निंदित रही है। वे ब्लैक लाइव्स मैटर या फिलिस्तीनियों के लिए तो लामबंद हो सकते हैं, लेकिन जब पड़ोसी बांग्लादेश में हिंदुओं की बात आती है, तो चुप क्यों हो जाते हैं?

बांग्लादेश में हो रही घटनाओं ने धार्मिक स्वतंत्रता, पहचान, उसकी अभिव्यक्ति और हिंदुओं के भविष्य के बारे में गम्भीर सवाल खड़े हो गए हैं। ऐसी स्थिति में न्याय, निष्पक्षता और मानवाधिकार के क्या मायने रह जाएंगे? (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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