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- Manoj Joshi’s Column There Is A Crisis Situation In Many Countries Of The World Due To Turmoil
3 घंटे पहले
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मनोज जोशी विदेशी मामलों के जानकार
अगर 2024 युद्ध और अराजकता का साल था तो 2025 में भी बदलाव की उम्मीद नहीं है। इस साल लेबनान, गाजा और यूक्रेन में युद्ध समाप्त हो सकते हैं, लेकिन इन युद्धों ने जो अशांति पैदा की है, वह कायम रहेगी।
दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका में 20 जनवरी को नए राष्ट्रपति शपथ ग्रहण करेंगे। ट्रम्प की धौंस-डपट, धमकियां, नखरे उनके लिए बातचीत की एक रणनीति हो सकती है, लेकिन इसने दुनिया को अपने भविष्य के बारे में चिंतित कर दिया है।
2025 में ट्रम्प के साथ ही दुनिया के सामने आने वाली एक बड़ी समस्या अमेरिका के पारम्परिक सहयोगियों के प्रति उनके भरोसे की कमी है। शीत युद्ध के बाद से ही अमेरिका के नेतृत्व वाली गठबंधन-प्रणाली विश्व-व्यवस्था की रक्षा करती आ रही है।
इसने एक स्वस्थ मौद्रिक और व्यापार-प्रणाली प्रदान की है, जिससे दुनिया को बड़े पैमाने पर लाभ हुआ है। अमेरिका की अगुवाई वाले संगठनों ने उसे वैश्विक भू-राजनीतिक ताकत प्रदान की है और यह उसकी समृद्धि और ताकत में महत्वपूर्ण फैक्टर रहे हैं।
अमेरिका की ताकत उसके सहयोगियों, मजबूत अर्थव्यवस्था और सैन्य-शक्ति में नहीं, बल्कि फेडरल रिजर्व, अमेरिकी कांग्रेस जैसे संस्थानों में है। ये संस्थाएं जांच और संतुलन, न्यायिक और नियामक प्रणालियों के आधार पर चलती हैं। लेकिन ट्रम्प के कार्यकाल में इन सभी पर वैसे बदलावों का खतरा है, जो न केवल अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया को प्रभावित कर सकते हैं।
समस्या यह है कि एक तरफ जहां अमेरिकी अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है और दुनिया में अमेरिका की ताकत में कोई कमी नहीं दिख रही है, तब वैश्विक मंच पर अन्य देश लड़खड़ा रहे हैं। रूस एक ऐसे युद्ध में फंसा हुआ है, जिसने पहले ही उसकी अर्थव्यवस्था को खोखला कर दिया है और उसके युवाओं को भारी नुकसान पहुंचाया है। चीन की अर्थव्यवस्था संरचनात्मक कमजोरियों की शिकार है और अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया, फिलीपींस, भारत और यूरोप से प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है।
अमेरिका के सहयोगी देश भी राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहे हैं। फ्रांस ने एक साल में तीन प्रधानमंत्रियों को बदलते देखा है। इस बात की पूरी संभावना है कि राष्ट्रपति मैक्रों को 2027 में अपने कार्यकाल के अंत से पहले ही इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। जून में फ्रांस में हुए संसदीय चुनावों में इमिग्रेशन विरोधी दक्षिणपंथी नेशनल रैली पार्टी ने बढ़त हासिल की थी।
जर्मनी आर्थिक मंदी से जूझ रहा है। निर्यात पर निर्भर यह देश वैश्विक मंदी का खामियाजा भुगत रहा है। वहां राजनीतिक रुझान अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) पार्टी के उदय को देख रहे हैं, जो एक दक्षिणपंथी राजनीतिक गठन है।
यह भी इमिग्रेशन और यूरोपीय संघ का विरोधी है। कनाडा में जस्टिन ट्रूडो विदा हो चुके हैं। यूके में सर कीर स्टारमर के नेतृत्व वाली नव निर्वाचित लेबर सरकार गति नहीं पकड़ पा रही है। उसे कंजर्वेटिव पार्टी से तत्काल कोई चुनौती नहीं मिल रही है, जिसका कार्यकाल हास्यास्पद तो था ही, विनाशकारी भी।
2010-2022 के बीच कंजर्वेटिव पार्टी के 5 प्रधानमंत्री रहे। वर्तमान में, उन्हें निगेल फरेज के नेतृत्व वाली इमिग्रेशन विरोधी रिफॉर्म यूके पार्टी द्वारा चुनौती दी जा रही है। हाल ही में ट्रम्प के करीबी इलोन मस्क ने भी स्टारमर को आड़े हाथों लेकर आने वाले समय के संकेत दे दिए हैं।
एशिया के अमेरिकी सहयोगी- दक्षिण कोरिया और जापान भी राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहे हैं। दक्षिण कोरिया में राष्ट्रपति यूं सूक येओल पर देश में मार्शल लॉ घोषित करने की कोशिश करने के लिए नेशनल असेम्बली द्वारा महाभियोग चलाया गया है।
यूं की कंजर्वेटिव पार्टी ने अप्रैल में हुए चुनावों में बहुमत खो दिया था। जापान में नए प्रधानमंत्री शिगेरु इशिबा ने अपने कार्यकाल के सिर्फ 26 दिन बाद ही अचानक चुनाव कराने की घोषणा कर दी थी, ताकि सकारात्मक आर्थिक स्थिति का फायदा उठाया जा सके। लेकिन यह दांव उल्टा पड़ गया और सत्तारूढ़ लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी ने 50 सीटें खोकर अपना बहुमत गंवा दिया। अब इशिबा अल्पमत की सरकार चला रहे हैं।
विकसित दुनिया में अमेरिकी नेतृत्व की मांग बहुत ज्यादा है। लेकिन दुनिया में आज उसकी क्षमताओं को लेकर भी चिंताएं हैं। पिछला दशक अमेरिका के लिए मिला-जुला रहा, जिसमें अफगानिस्तान से वापसी, यूक्रेन और गाजा युद्धों से उसका खराब ढंग से निपटना शामिल है। डोनाल्ड ट्रम्प के आगमन से हालात में सुधार नहीं आने वाले हैं।
एक तरफ जहां अमेरिकी अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है और दुनिया में अमेरिका की ताकत में कोई कमी नहीं दिख रही है, दूसरी तरफ वैश्विक मंच पर अन्य देश लड़खड़ा रहे हैं। विकसित दुनिया में अमेरिकी नेतृत्व की मांग है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)