मिन्हाज मर्चेंट का कॉलम:  संविधान-निर्माता वंशवाद की राजनीति देश में नहीं चाहते थे
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मिन्हाज मर्चेंट का कॉलम: संविधान-निर्माता वंशवाद की राजनीति देश में नहीं चाहते थे

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2 घंटे पहले

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मिन्हाज मर्चेंट, लेखक, प्रकाशक और सम्पादक - Dainik Bhaskar

मिन्हाज मर्चेंट, लेखक, प्रकाशक और सम्पादक

संसद में संविधान पर बहस के दौरान राहुल गांधी ने सावरकर के हवाले से कहा था कि ‘भारतीय संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है।’ सावरकर हमेशा से कांग्रेस के निशाने पर रहे हैं। राहुल कहते हैं कि महात्मा गांधी ने बिना किसी शिकायत के ब्रिटिश राज में अपना जीवन बिताया, वहीं सावरकर ने जेल से अपनी रिहाई सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेजों से माफी मांगी।

राहुल यह नहीं बताते कि महात्मा गांधी ने जेलों में अपना अधिकांश समय आरामदेह हाउस-अरेस्ट (नजरबंदी) में बिताया था, जहां उनके सहयोगी उनकी जरूरतों की पूर्ति के लिए उनके साथ रहते थे। वहीं सावरकर ने 1911 से 1924 तक 13 साल अंडमान की कुख्यात सेलुलर जेल में बिताए, जहां उन्हें अंग्रेजों द्वारा क्रूरतापूर्वक प्रताड़ित किया गया था।

इतिहासकार विक्रम सम्पत ने दो खंडों में सावरकर की जीवनी लिखी है। उसमें उस अंडमान जेल की स्थिति का भी वर्णन किया गया है, जहां सावरकर को रखा गया था। वो लिखते हैं कि जेल में यातना के विभिन्न साधनों का इस्तेमाल किया जाता था। कैदियों को सुबह 7 से 11 और फिर दोपहर 12 से शाम 5 बजे तक खड़ा रखा जाता था। किसी आरामदायक मुद्रा की तलाश करने पर कैदियों को दंडित किया जाता था। उन्हें बेड़ियों में बांधा जाता था।

कैदी अपने पैरों को एक-दूसरे के करीब नहीं ला सकते थे। उन्हें पैरों को फैलाकर चलना, बैठना, काम करना और सोना पड़ता था। यह सजा हफ्तों तक जारी रह सकती थी। बेंत, संगीन, मोटी रस्सियों और चाबुकों का भी नियमित रूप से इस्तेमाल किया जाता था। कई कैदियों को रात में अपनी कोठरी के फर्श पर ही शौच के लिए मजबूर होना पड़ता था। कोठरी के छोटे-से आकार को देखते हुए यह नर्क जैसा दृश्य लगता था।

वहीं महात्मा गांधी को बड़े बंगलों में नजरबंद रखा गया था। उदाहरण के लिए- 1942 और 1944 के बीच- महात्मा गांधी और उनके सहयोगियों को पुणे में 19 एकड़ में फैले आलीशान आगा खां पैलेस में कैद किया गया था। जैसा कि एक रिपोर्ट में बताया गया है, 1942 में, इस महल को गांधीजी की पत्नी कस्तूरबा, स​चिव महादेव देसाई, सरोजिनी नायडू और उनके शीर्ष नेतृत्व के साथ नजरबंद रखने के लिए जेल में बदल दिया गया था।

भगत सिंह जैसे कुछ स्वतंत्रता सेनानियों ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ क्रांतिकारी हिंसा का विकल्प चुना और अंग्रेजों द्वारा उन्हें मृत्युदण्ड दिया गया। जिन सेनानियों- मुख्य रूप से कांग्रेस के सदस्यों ने शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन का रास्ता चुना, उनके साथ कम कठोर व्यवहार किया गया। लेकिन उनकी रणनीति से स्वतंत्रता प्राप्ति में काफी विलम्ब हो सकता था, अगर द्वितीय विश्व युद्ध नहीं हुआ होता तो।

द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी से छह साल तक लड़ने और अमेरिका से भारी वित्तीय कर्ज लेने के बाद ब्रिटिशों पर जो थकान हावी थी, उसने युद्ध समाप्त होने के दो साल बाद 1947 में भारत को मिली स्वतंत्रता में मुख्य भूमिका निभाई थी।

राहुल जेल से सावरकर द्वारा लिखे माफीनामे की आलोचना करते हैं। लेकिन अंडमान जेल से रिहाई के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को लिखे सावरकर के पत्र में वही भाषा थी, जिसका पालन करने के लिए ब्रिटिश वहां कैद सभी भारतीय कैदियों पर दबाव डालते थे। स्वतंत्रता सेनानी नंद गोपाल, बरुन घोष, सुधीर कुमार सरकार और ऋषिकेश कंजीलाल जैसे अन्य कैदियों ने भी सावरकर के जैसे शब्दों के साथ वैसी ही औपचारिक अर्जी प्रस्तुत की थी।

लेकिन आम्बेडकर की अध्यक्षता में संविधान का अंतिम मसौदा लिखने वालों ने वंशवादी परिवारों द्वारा संचालित लोकतांत्रिक भारत की कल्पना कभी नहीं की थी। गांधी, पटेल, बोस और अन्य दिग्गजों ने अपने परिवारों को चुनावी राजनीति से दूर रखने का दृढ़ निश्चय किया था। उनमें से अधिकांश सफल रहे।

आज कोई महात्मा गांधी वंश, सरदार पटेल वंश या सुभाषचंद्र बोस वंश राजन​ीति में नहीं है। जवाहरलाल नेहरू को भी इसका श्रेय देना चाहिए कि 17 साल तक प्रधानमंत्री रहने के बावजूद उन्होंने बेटी इंदिरा को सांसद या मंत्री बनने की अनुमति नहीं दी थी। उनकी मृत्यु के बाद ही इंदिरा राज्यसभा सांसद बनीं और लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री का पद सम्भाला।

राजीव गांधी भी परिवार के सदस्यों के राजनीति में जाने के खिलाफ थे। सच कहें तो आज उन्हें अपने परिवार के तीन सदस्यों को संसद सदस्य के रूप में देखना अच्छा नहीं लगता। संविधान निर्माताओं ने देश में भाई-भतीजावाद का सपना नहीं देखा था।

संविधान का अंतिम मसौदा लिखने वालों ने वंशवादी परिवारों द्वारा संचालित लोकतांत्रिक भारत की कल्पना कभी नहीं की थी। गांधी, पटेल, बोस ने अपने परिवारों को चुनावी राजनीति से दूर रखने का दृढ़ निश्चय किया था।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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