मेघना पंत का कॉलम:  फेमिनिज्म पुरुषों को भी बेड़ियों से मुक्त करता है
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मेघना पंत का कॉलम: फेमिनिज्म पुरुषों को भी बेड़ियों से मुक्त करता है

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4 घंटे पहले

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मेघना पंत, पुरस्कृत लेखिका, पत्रकार और वक्ता - Dainik Bhaskar

मेघना पंत, पुरस्कृत लेखिका, पत्रकार और वक्ता

हाल के महीनों में पुरुषों द्वारा आत्महत्या की दुखद खबरें सामने आईं। इन त्रासद घटनाओं के पीछे कई डराने वाले प्रश्न खड़े हुए हैं ः क्यों पुरुष चुप्पी ओढ़कर दम तोड़ रहे हैं- क्यों उनकी कंडीशनिंग ‘पुरुषों की तरह’ बनने जैसी होती है, और वे अपनी भावनाओं को दबाते हैं?

ऐसा कैसे होता है कि पितृसत्ता व्यवस्था, जो कि पुरुषों के लिए हितकारी मानी जाती है, उन्हें बहुत गहरा नुकसान भी पहुंचाती है? और अंत में, ऐसी दुनिया में जहां विवाह जैसे पारंपरिक ढांचे सामाजिक दबावों के आगे झुकते नजर आते हैं, क्या अब हमें ऐसी संस्थाओं को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है?

भारत में आत्महत्या से होने वाली मौतों में 70% से ज्यादा पुरुष हैं। वहीं समाज अक्सर पुरुषों को संरक्षक और गिवर के रूप में पेश करता है। यही अपेक्षाएं बेड़ियां बन जाती हैं, जिसमें उन्हें मदद के लिए रोने की भी जगह नहीं मिलती।

वित्तीय रूप से लड़खड़ा रहे, रिश्ते में असफल या मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहे व्यक्ति से कहा जाता है कि ‘इससे सख्ती से निपटें।’ जब वो ऐसा नहीं कर पाता, तो उसे कमजोर समझा जाता है और जिस संस्कृति में मर्दानगी को ताकत माना जाता है, वहां यह विनाशकारी निर्णय साबित होता है।

दरअसल ये त्रासदियां अकेले नहीं घटतीं। वे एक बड़ी सामाजिक समस्या के लक्षण हैं जैसे पितृसत्ता। पितृसत्ता प्रभुत्व का महिमामंडन करती है और भावनाओं का दमन करती है और पुरुषों को ऐसे खामोश युद्ध में अकेला लड़ने के लिए छोड़ देती है, जिसमें वे बचपन से ही धकेल दिए जाते हैं।

वहीं फेमिनिज्म को लंबे समय से सिर्फ स्त्रियों के आंदोलन के तौर पर देखा जाता है। जबकि सच ये है कि फेमिनिज्म पुरुषों को भी मुक्त करता है। यह उन विषैली रूढ़ियों को तोड़-मरोड़कर रख देता है, जो पुरुषों को प्रदाता या निर्णय-निर्माता जैसी पूर्वनिर्धारित भूमिकाओं में रहने के लिए मजबूर करती हैं। यह उन्हें वो अनुमति देता है कि वह भी केयरगिवर हो सकते हैं, मदद मांग सकते हैं।

रोने वाले पुरुषों को अभी भी कई घरों में पुरुषों से कमतर आंका जाता है। घर पर रहकर पैरेंट की भूमिका निभाने वाले पुरुष का उपहास उड़ाया जाता है। ये नैरेटिव वो बेड़ियां हैं जो पितृसत्तात्मक समाज में गढ़ी गई हैं। इन उम्मीदों को पीछे छोड़ आने की लड़ाई आसान नहीं है- इसके लिए पुरुषों को अपनी कंडीशनिंग का मुकाबला करना होगा और ऐसी व्यवस्था को जवाबदेह ठहराने की जिम्मेदारी लेनी होगी, जो न सिर्फ सबको बल्कि खुद उन्हें भी नुकसान पहुंचा रही है।

अपने वर्तमान स्वरूप में विवाह नामक संस्था भी पितृसत्ता में डूबी हुई है। यह अपेक्षा करती है कि पुरुष जरूरतें पूरी करें, महिलाएं पालन-पोषण करें और दोनों पक्ष ऐसी भूमिकाएं पूरी करें जो भले उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप न हों।

विवाह सिर्फ लैंगिक भूमिकाएं या सामाजिक मानदंडों को लागू करने का जरिया नहीं होना चाहिए। यह एक विकल्प होना चाहिए, अपेक्षा नहीं; साझेदारी, बलिदान नहीं। इसमें दोनों साझेदार एक साथ जीवन को गढ़ते हुए अपनी-अपनी जिंदगी में भी आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र हैं।

पुरुषों की आत्महत्याएं सिर्फ हालिया संकट भर नहीं है- इसके लिए कदम उठाने की जरूरत है। पुरुषों को पितृसत्तात्मक व्यवस्था का सामना करना चाहिए जो उन्हें बाधित करती है, नारीवाद का समर्थन करना चाहिए और इमोशनल वेल-बीइंग की वकालत करनी चाहिए। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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