10 घंटे पहले
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रश्मि बंसल, लेखिका और स्पीकर
कई दिनों बाद ट्रेन से सफर किया। बचपन की याद आई। तब हम गर्मियों की छुट्टियों में “वैकेशन’ पर नहीं जाते थे। हर साल एक ही मुकाम था- दादी का घर। मुम्बई से रतलाम की दूरी कुछ 10-12 घंटे की थी और दिन में ट्रेन से सफर करने का एक अलग ही चार्म था।
खिड़की के पास बैठकर बाहर का नजारा, साथ में लाई हुई आलू-पूरी की पिकनिक। और अगर अपने कम्पार्टमेंट में कोई मिलनसार मिल जाए, फिर तो और भी मजा। उनका लाया हुआ खाना भी चट करने का मौका हमें मिलता। क्योंकि आधे-एक घंटे में उस अनजान परिवार से हमारी गहरी दोस्ती हो जाती।
शुरू होता कुछ इस तरह- जी, आप कहां से हो? अच्छा, अच्छा, हमारे चाचिया ससुर की बहन की बेटी वहीं ब्याही हुई है। वो फलां मोहल्ले में रहते हैं। मतलब घूम-फिरकर कोई ना कोई पहचान निकल ही आती थी। जी हां, लोग “म्युचुअल्स’ निकाल लेते थे, क्योंकि उनका दिमाग ही एक जीता-जागता फेसबुक था।
वैसे ट्रेन में कुछ टाइमपास भी जरूरी था। अगर ताश खेलनी हो, दो लोग और मिल जाएं तो गेम का मजा डबल। या फिर अंताक्षरी खेल ली और समय कट गया। एक और अट्रैक्शन था कि हर स्टेशन पर कोई ना कोई खाने का आइटम फेमस था। कहीं का समोसा, कहीं की लस्सी, ऊंची-ऊंची आवाज में फेरीवाले बेचते थे।
खैर, कुछ घंटे बाद अपना स्टेशन आता तो दु:खी मन से हम अपने नए दोस्तों से विदा लेते। और फिर कभी मिलने का मौका ना मिलता। मगर वो कुछ घंटे साथ में अच्छे बीते, बस इतना काफी था। देखा जाए तो जीवन भी तो ऐसा ही होता है।
जन्म जब होता है तो आप किसी डिब्बे में चढ़ते हैं। सफर में आपके साथ कुछ लोग हैं, जिन्हें आप मानते हैं अपना परिवार, अपने दोस्त। किसी स्टेशन पर कोई उतर जाता है, तो कोई चढ़ जाता है। ट्रेन चलती रहती है, जैसे जीवन चलता है। किसी का कोई सामान छूट जाता है। मगर गाड़ी रुकती नहीं।
कुछ कम सामान लेकर चलते हैं, कुछ ज्यादा। जा रहे हैं चार दिन के लिए, लेकिन दस साड़ियां, चार चप्पलें और पचास क्लिप लेकर। बस, हम तो ऐसे ही हैं। अब ट्रेन में एक्सेस बैगेज चार्जेस नहीं लगते, मगर कई बार दूसरों को एडजस्ट करना पड़ता है।
जब गुलजार साहब ने बोल लिखे थे- “मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है’- तो उनका मतलब सिर्फ कपड़े-लत्तों से नहीं था। अंग्रेजी में कहते हैं- “इमोशनल बैगेज’। यानी वो भावना जो हमारे लिए बोझ बन गई है। चेतना के समंदर में भावना एक लहर है, जो हमारी तरफ दौड़कर आती है।
और फिर वापस समंदर में मिल जाती है। लेकिन अगर हम उसको एक बड़े से कंटेनर में स्टोर कर बैठ जाएं तो वो अब लहर नहीं, हमारे कंधे पर एक बोझ है जिसे लेकर हम घूमते हैं। और दूसरों से कहते हैं- आप जरा एडजस्ट करो।
शायद आपको एहसास भी नहीं इस बोझ का, क्योंकि सालों से इसे लिए घूम रहे हैं। या फिर कई जन्मों से। कंटेनर में और जगह नहीं, पानी आसपास छलक रहा है। सबको तकलीफ हो रही है। मगर आप कहते हैं क्या करूं, ये तो अब मेरा हिस्सा बन चुका है।
तो रोज सुबह उठने के बाद, चाय के पहले, दस मिनट आप आंखें मूंदकर बैठ जाएं। हां, इसे कुछ लोगों ने “मेडिटेशन’ का नाम दिया है। मैं समझती हूं आप अपनी जीवात्मा से कनेक्ट कर रहे हो। शुरू में कॉल लगेगी नहीं, नेटवर्क बिजी मिलेगा, क्योंकि आपके कॉल की उम्मीद ही नहीं थी।
फिर एक दिन सम्पर्क बनेगा और एक हलकी-सी आवाज सुनाई देगी। हैलो, जी, बोल रहा हूं। तुम्हारा सच्चा साथी। सुख हो, दु:ख हो, मैं हूं ना। दूसरों से अपेक्षा मत करो, प्यार का सागर इधर है। लहरों में खेलो-कूदो, मैं डूबने नहीं दूंगा। जो लहरों में खेलता है, उसे किसी “सामान’ की जरूरत नहीं। वो खिलखिलाते हुए, बलखाते हुए जिंदगी गुजार लेता है।
इस बार की गर्मियों में अपने असली घर को लौट जाइए। सत्, चित, आनंद पाइए। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)