शशि थरूर का कॉलम:  चुनावों के बार-बार होने से क्यों समस्या होनी चाहिए?
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शशि थरूर का कॉलम: चुनावों के बार-बार होने से क्यों समस्या होनी चाहिए?

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7 घंटे पहले

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शशि थरूर पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद - Dainik Bhaskar

शशि थरूर पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद

भारतीय लोकतंत्र की खूबी यह है कि यहां हमेशा चुनाव होते रहते हैं। अलबत्ता कुछ लोग इसे खूबी के बजाय खामी भी कहते हैं। इस साल लोकसभा चुनावों की चहल-पहल खत्म होते-होते अनेक राज्यों में महत्वपूर्ण चुनाव भी सम्पन्न हुए और उनके नतीजों ने विश्लेषकों और राजनेताओं को चकित भी किया और उनके प्रति उत्सुकता भी जगाई।

इससे यह भी पता चला कि भारत के मतदाता किसी परिपाटी पर नहीं चलते हैं और वे पूर्वानुमानों को झुठलाने में सक्षम हैं। हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखण्ड के चुनाव लोकसभा चुनावों के बाद हुए हैं और अब दिल्ली के चुनावों की बारी है। संक्षेप में, भारत के सभी 28 राज्यों और 7 केंद्र-शासित प्रदेशों में अपनी सरकार के चयन के लिए लगातार चुनाव होते रहते हैं।

लेकिन सरकार का मानना है कि भारत में चुनावों को लेकर बनी रहने वाली अनिश्चितता अब सीमा पार कर चुकी है और इन हालात को बदलने के लिए कुछ किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री एक निर्धारित चुनाव-शेड्यूल चाहते हैं,​ जिसमें लोकसभा, विधानसभाएं और नगरीय-निकाय- सभी के लिए हर 5 साल में एक दिन, एक साथ वोट पड़ें। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति ने इस बारे में रिपोर्ट प्रस्तुत की है और इस विचार को ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ या ‘एक देश, एक चुनाव’ का नाम दिया गया है।

चुनावों का बार-बार होना वास्तव में केंद्र सरकार के लिए चुनौती हो सकती है। एक बात यह है कि स्थानीय चुनाव मुख्य रूप से स्थानीय मुद्दों से संबंधित होते हैं, लेकिन उनके परिणामों को अकसर केंद्र सरकार पर जनमत-संग्रह के रूप में देखा जाता है।

दूसरी बात यह है कि चुनावों के दौरान शासन-व्यवस्था ठप्प हो जाती है, क्योंकि चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता नेताओं को ऐसी नीतिगत घोषणाएं करने से रोकती है, जो मतदाताओं को उनका समर्थन करने के लिए प्रेरित कर सकती हों। इसके अलावा, राष्ट्रीय नेता चुनाव वाले राज्यों में प्रचार में व्यस्त हो जाते हैं।

इनमें से हर राज्य का अपना राजनीतिक इतिहास होता है और उनकी अपनी क्षेत्रीय पार्टियां होती हैं। मोदी और शाह अपने कार्यकाल के दौरान अंतहीन चुनाव-प्रचार अभियानों में शामिल रहे हैं, जिससे उन्हें अपने आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वाह के लिए बहुत कम समय मिल पाता है।

मोदी का यह भी तर्क है कि लगातार चुनाव पैसे और समय दोनों की बर्बादी करते हैं। उन्हें यह भी लगा होगा कि एक साथ चुनाव कराने से राष्ट्रीय मुद्दों को राज्य के चुनावों में बढ़ावा मिल सकता है। विपक्ष इसे खारिज करते हुए कहता है कि यह भारत के संघवादी स्वरूप व उसकी ​विविधता को कुचलने का प्रयास है।

लेकिन एक देश, एक चुनाव के विचार के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह अव्यावहारिक है। हम इसे अतीत में आजमा चुके हैं। स्वतंत्रता के बाद, भारत ने एक ही चुनाव-दिवस की स्थापना की थी, लेकिन यह व्यवस्था 1952 से 1967 तक केवल 15 वर्ष ही चली।

इसका कारण भारत की संसदीय प्रणाली के एक मूल विचार में निहित है : सरकारों के लिए अपना बहुमत बनाए रखने की अनिवार्यता। अगर कोई सरकार कार्यकाल पूरा होने से पहले बहुमत खो देती है, तो नए सिरे से चुनाव कराए जाते हैं। वहीं कोई सरकार अपने बहुमत को और बढ़ाने की उम्मीद में समय से पहले चुनाव भी करवा सकती है।

ऐसा अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग समय पर हुआ, और केंद्र में भी कई बार हुआ। और ऐसा होता रहेगा, खास तौर पर इसलिए क्योंकि कई राज्यों में गठबंधन सरकारें हैं। यहां तक कि केंद्र की सरकार भी आज गठबंधन से चल रही है और यह गठबंधन कभी भी टूट सकता है।

किसी सरकार का नए सिरे से चुनावी जनादेश के बिना सत्ता में बने रहना अलोकतांत्रिक है। एक देश, एक चुनाव का विचार प्रेसिडेंशियल यानी राष्ट्रपति-शैली के चुनावों में ही कारगर लगता है, जिसमें किसी चीफ एग्जीक्यूटिव की तरह नेता का चयन किया जाता हो। लेकिन केंद्र सरकार ऐसी किसी शैली की वकालत नहीं कर रही है।

भारत के लोकतंत्र में आस्था रखने वालों ने लंबे समय से खुद को यह विश्वास दिलाया है कि राष्ट्रपति-प्रणाली तानाशाही को बढ़ावा देगी, और इसलिए इसका विरोध किया जाना चाहिए। लेकिन संसदीय प्रणाली ने भी अलग तरह की समस्याओं को जन्म दिया है।

कार्यपालिका अपने बहुमत को हथियार की तरह इस्तेमाल करती है। जबकि राष्ट्रपति-प्रणाली में कार्यपालिका एक स्वतंत्र विधायिका के प्रति जवाबदेह होती है; वह विधायिका का इस्तेमाल रबर स्टैंप के रूप में नहीं कर सकती।

भारत की संसदीय प्रणाली में एक देश, एक चुनाव का विचार कारगर नहीं हो सकता। और वैसे भी, बार-बार होने वाले चुनावों की हमें जरूरत है, क्योंकि उन्हीं के जरिए देश की जनता सरकार तक अपना संदेश पहुंचा सकती है।

(© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)

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