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5 घंटे पहले
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संजय कुमार, प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार
बड़ी संख्या में भारतीय अपनी समृद्ध धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत को संजोए हुए हैं। खासतौर पर पिछले एक दशक में इसके प्रति भारतीयों में अधिक उत्साह का संचार हुआ है। यह भावना सामाजिक और सांस्कृतिक एकरूपता का एक जरूरी साधन है, लेकिन राजनीतिक लामबंदी के साधन के रूप में भी क्या धार्मिक-सांस्कृतिक गौरव कारगर हो सकता है?
राजनीतिक दल कई फैक्टर्स के बूते चुनाव जीतते हैं। जैसे सरकार द्वारा किए गए काम, नेतृत्व की गुणवत्ता और उनके सामाजिक और राजनीतिक गठबंधन। लेकिन यह जरूरी नहीं कि वे केवल धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत का हवाला देकर ही चुनाव जीत जाएं।
साल 2014 में भाजपा सत्ता में आई क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को खारिज करने के बाद लोगों को भाजपा में उम्मीद दिखी। भाजपा 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बड़े अंतर से जनादेश जीतने में सफल रही। हालांकि जरूरी नहीं कि ये जीतें सांस्कृतिक-धार्मिक गौरव का हवाला देकर ही मिली हों।
2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने चुनावी लाभ को बढ़ाने के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक गौरव को भुनाने की कोशिश की, क्योंकि यह अयोध्या में बहुप्रतीक्षित राम मंदिर के उद्घाटन की पृष्ठभूमि में हुआ था। इसके बावजूद भाजपा की सीटें 303 से घटकर 240 रह गईं।
साफ है कि धार्मिक और सांस्कृतिक गौरव का आह्वान उतना फायदा नहीं दे पाया, जितने की भाजपा को उम्मीद थी। हालांकि यूपी विधानसभा चुनाव अभी दो साल दूर है, लेकिन भाजपा ने प्रयागराज में संपन्न महाकुम्भ से चुनावी लाभ बढ़ाने की दिशा में पहले ही काम करना शुरू कर दिया है।
राम मंदिर वर्षों से विवाद का विषय रहा था और भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा बना रखा था। 22 जनवरी, 2024 को राम मंदिर का उद्घाटन करके वादा पूरा कर लिया गया। सरकार के मुखिया ने कार्यक्रम का उद्घाटन किया और सरकार सक्रिय रूप से इसका हिस्सा बनी।
कुछ राज्यों में स्कूलों की छुट्टी की घोषणा भी की गई। कार्यक्रम को लाइवस्ट्रीम करके भक्तों तक पहुंचाया गया। आयोजन में 7000 से ज्यादा गणमान्यजन आमंत्रित किए गए और अतिथियों को विशेष प्रसाद बॉक्स दिए गए।
‘खादी ऑर्गेनिक’ और ‘मंदिर दर्शन’ जैसी कई कंपनियों ने उद्घाटन समारोह से मिली मिठाइयां बेचने का दावा भी किया, हालांकि राम मंदिर ट्रस्ट (श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र) ने दावा किया कि ऐसा कोई भी संगठन उनसे नहीं जुड़ा है।
भाजपा को उम्मीद थी कि राम मंदिर के उद्घाटन से उसे बड़ा चुनावी लाभ मिलेगा क्योंकि इससे मतदाताओं के बीच उसकी मजबूत हिंदू पहचान बनी थी, खासकर यूपी और हिंदी पट्टी के राज्यों में। लेकिन लोकसभा चुनाव में उसे यूपी, हरियाणा और राजस्थान में झटका लगा और काफी नुकसान हुआ।
यहां तक कि भाजपा फैजाबाद लोकसभा सीट भी हार गई, जिसके तहत अयोध्या शहर आता है। इसे राम मंदिर उद्घाटन के बाद भाजपा की हिंदू लामबंदी के लिए बड़ा झटका माना गया। लेकिन भाजपा कार्यकर्ताओं ने इसके बाद कड़ी मेहनत की और हरियाणा, महाराष्ट्र और हाल ही में दिल्ली में शानदार जीत हासिल करके लोकसभा चुनावों की हार की भरपाई कर ली। हालांकि इनमें से किसी भी राज्य में भाजपा ने मतदाताओं को एकजुट करने के लिए हिंदू लामबंदी को साधन नहीं बनाया।
प्रयागराज में हाल ही में संपन्न हुए कुम्भ मेले में सरकार ने एक बार फिर धार्मिक भावनाओं को बढ़ाने की कोशिश की। यह मेला 13 जनवरी से 26 फरवरी तक चला। प्रधानमंत्री ने लोगों से इस आयोजन में भाग लेने की अपील की। लेकिन विशेष व्यवस्थाओं के बावजूद दुर्घटनाओं में कुछ लोगों की जान चली गई।
मेले में सरकार की भागीदारी धार्मिक और आध्यात्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने की उसकी पहल का हिस्सा थी। जो भक्त इस आयोजन का हिस्सा नहीं बन पाए, उनके लिए घर पर ही त्रिवेणी संगम का पवित्र जल मंगवाने का भी प्रबंध था। कुछ ने लोगों को ऑनलाइन डुबकी लगवाकर कमाई की। इन सबने यह दिखाया कि धार्मिक आस्था भौतिक सीमाओं से परे है।
वैसे तो यह एक धार्मिक आयोजन था, लेकिन कुम्भ के बाद भाजपा 2027 में होने वाले यूपी विधानसभा चुनावों के लिए मतदाताओं को जुटाने की पूरी कोशिश कर रही है। हालांकि बड़ी संख्या में लोग इस बड़े धार्मिक आयोजन के लिए भाजपा सरकार को श्रेय देने को तैयार हैं, लेकिन इससे यह सुनिश्चित नहीं होता कि भाजपा इसका विधानसभा चुनावों में लाभ उठा पाएगी। फिलहाल हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं।
इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि राजनीतिक लामबंदी के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों के इस्तेमाल की अपनी सीमाएं होती हैं। वैसा न होता तो भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव में फैजाबाद की सीट पर नहीं हारती। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)