इतिहास के पन्ने जब-जब पलटे गए हैं विवाद तब-तब खड़ा हुआ है। हिंदू और मुस्लिम का विवाद भी पुश्तैनी है। ये विवाद कभी मंदिर को लेकर तो कभी मस्जिद को लेकर होता रहा है। पिछले कुछ दिनों से औरंगजेब की कब्र का मामला गरमाया हुआ है। महाराष्ट्र में ये मुद्दा इस कदर गरमा गया है कि इस पर राजनीतिक रोटियां तो सेकी जा रही हैं, साथ ही लोग भी उग्र हो गए हैं। गुस्से की आग में ना जाने कितने घर महाराष्ट्र के नागपुर में जल गए हैं। औरंगजेब को लेकर खड़े हुए इस विवाद ने इतना बड़ा आकार ले लिया है कि इसका शिकार मासूम हो रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि ये विवाद फिल्म ‘छावा’ की वजह से शुरू हुआ है। अब तो विक्की कौशल को ट्रोल भी किया जा रहा है। उनको नागपुर हिंसा का जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। लोग सोशल मीडिया पर उन्हें बॉयकॉट करने की मांग करने लगे हैं। लेकिन, किसी विवाद के लिए फिल्म, एक्टर और मेकर्स को जिम्मेदार ठहराना कहां तक सही हो सकता है?
समाज का एक तबका फिल्मों को मनोरंजन का साधन मानता है तो दूसरा कहता है कि ये समाज का आइना होती है। अब जिसने मनोरंजन का साधन माना उसने फिल्म उसी नजरिए से देखीं, उसने फिल्म में बहुत ज्यादा तर्क खोजने की कोशिश नहीं की। रोहित शेट्टी तो इसी वजह से किसी भी तरह की फिल्म बनाकर भी सुरक्षित रहते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनकी फिल्मों के लिए दिमाग घर पर छोड़कर आना अनिवार्य है। लेकिन अगर कोई फिल्म को समाज का आईना मानता है, उन लोगों के लिए मनोरंजन की जगह लॉजिक ले लेता है और फिर वो लॉजिक कई सवाल खड़े करता है। इस बार तो क्योंकि विवाद एक ऐसी फिल्म को लेकर है जहां इतिहास के पुराने पन्ने टटोले गए हैं, ऐसे में उसका असर भी उतना ही व्यापक दिखाई दे रहा है।
लेकिन सवाल तो वही है, अगर किसी फिल्म ने अपनी रिसर्च के अनुसार कुछ तथ्य सामने रखने की कोशिश की भी, उसके लिए एक अभिनेता जिम्मेदार कैसे हुआ? विक्की कौशल और उनकी जिस फिल्म ‘छावा’ को विवाद का जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, उसमें छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी महाराज की वीरता और बहादुरी के बारे में दिखाया गया है कि कैसे उन्होंने पिता के शौर्य और स्वराज की सोच को आगे बढ़ाया। साथ ही फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे औरंगजेब ने संभाजी महाराज के साथ क्रूरता की। उन्हें यातनाएं दी। अब कुछ इतिहासकार मानते हैं कि औरंगजेब ने हिंदू मंदिरों को तोड़ा था। ‘छावा’ ने बस उसी थ्योरी को आगे बढ़ाने का काम किया, थोड़ा सा मनोरंजन का तड़का लगाया।
अब ‘छावा’ में दिखाए गए इतिहास में विवाद, विरोधाभास था, इसी वजह से एक बड़े तबके में काफी गुस्सा भी देखने को मिला। जो पहले से औरंगजेब को क्रूर मानता था, उनके लिए तो यह आक्रोशित होने का एक और माध्यम बन गया। इसके ऊपर जब फिल्म की चर्चा सोशल मीडिया पर शुरू हुई, यहां लोगों ने औरंगजेब की क्रूरता की आलोचना की, संभाजी महाराज के शौर्य के आगे सभी नतमस्तक हुए, तब माहौल और ज्यादा गरमाता गया। लेकिन यहां तक हिंसा की कोई बात नहीं थी, सिर्फ लोग अपने विचार रख रहे थे। असल में तो मामला तब गरमाया जब इसने राजनीतिक रूप लेना शुरू किया।
अबु आजमी की बयानबाजी ने आग में डाला घी
दरअसल, विवाद तब गरमाया जब औरंगजेब की कब्र हटाने की मांग शुरू हुई। ये मांग विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल द्वारा की जा रही थी। लेकिन तब अचानक से सियासी पिक्चर में सपा नेता अबु आजमी की एंट्री हुई और औरंगजेब की एक तारीफ ने आरोप-प्रत्यारोप के नए दौर को हवा दे दी। स उन्होंने कहा कि फिल्म ‘छावा’ में जिस तरह से औरंगजेब को क्रूर दिखाया गया उतना वो क्रूर थे नहीं। अब औरंगजेब को क्रूर ना बताना कई लोगों को रास नहीं आया, नेताओं में ही मतभेद देखने को मिले और यही से हालात धीरे-धीरे बिगड़ने लगे।
इसी के साथ ही औरंगजेब की कब्र को हटाने के लिए हिंदू संगठनों ने अल्टीमेटम भी दे दिया और मामला और ज्यादा गरमा गया। इस मांग पर राजनीतिक रोटियां सिकने लगीं। महाराष्ट्र में इसे लेकर तनाव बढ़ता चला गया। जिस मकबरे से किसी को सालों से दिक्कत नहीं हुई, उसे अचानक से हुई हटाने की मांग ने इतना तूल पकड़ लिया कि लोग मारने और मरने पर उतारू हो गए। देशभर से बड़े लोगों के भी रिएक्शन सामने आने लगे। मनोज मुंतशिर जैसे राइटर तक ने इस कब्र को हटाने की मांग कर दी, इसकी जगह शौचालय बनवाने का सुझाव दे दिया।
अब गौर करने वाली बात यह है कि एक दूसरे से लड़ नेता रहे हैं, बयानबाजी सोशल मीडिया पर हो रही है, लेकिन फिल्म ‘छावा’ की क्या गलती है? क्या विक्की कौशल ने कोई विवादित बयान दिया है? क्या औरंगजेब का किरदार निभाने वाले अक्षय खन्ना ने कुछ ऐसा बोला है? क्या फिल्म के मेकर्स ने भी कोई खास स्टैंड लेने का काम किया है? अगर इन सभी सवालों के जवाब ना है, तो फिर नागपुर हिंसा के लिए ‘छावा’ को कोई कैसे जिम्मेदार ठहरा सकता है? फिल्म को तो सिर्फ एक कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए जहां छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ ही उनके बेटे संभाजी महाराज के बारे में भी कुछ बताने की कोशिश हुई है।
ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि मामला गरमाया राजनेताओं की वजह से, जो इस मुद्दे पर राजनीति की रोटी सेंकने लगे। इतिहास गवाह है, जिस मुद्दे में राजनीति की एंट्री हुई है वो लंबा विवाद चला है। इससे पहले शाहरुख खान की ‘पठान’ जैसी फिल्म में सिर्फ कपड़े के रंग को लेकर विवाद हो गया था, जिसमें राजनीतिक गलियारों से कई राजनेता विवादों में कूदे थे और बयानबाजी की थी।
देवेंद्र फडणवीस का ‘छावा’ को लेकर बयान
अब महाराष्ट्र के सीएम देवेंद्र फडणवीस ने भी कहीं ना कहीं ‘छावा’ को ही नागपुर का जिम्मेदार ठहरा दिया। जबकि दूसरी तरफ फिल्म को महाराष्ट्र में टैक्स फ्री करने की कवायद चल रही थी। सीएम ने नागपुर हिंसा को लेकर कहा, ‘विश्व हिंदू परिषद (VHP) और बजरंग दल ने राज्य की शीतकालीन राजधानी में विरोध प्रदर्शन किया। जानबूझकर कुछ लोगों ने अफवाहें फैलाई गईं कि धार्मिक चीजें जलाई गईं। यह एक सोची-समझी साजिश लगती है।’ देवेंद्र फडणवीस ने साफ शब्दों में कहा कि ‘छावा’ फिल्म ने औरंगजेब के खिलाफ लोगों के गुस्से को भड़का दिया है।
लेकिन, एक ईमानदार सवाल पूछना जरूर बनता है- क्या समाज का दायित्व सिर्फ फिल्में निभाएंगी, कलाकार निभाएंगे, आम लोगों का क्या, उस जनता का क्या? क्या सही मायनों में जिम्मेदारी आम लोगों के साथ-साथ देश को चलाने वाले राजनेताओं की नहीं है? अगर फिर भी एक तबका फिल्म और इसके कलाकारों को दोषी मानता है, तो उतनी ही जिम्मेदारी राजनेताओं को भी लेनी पड़ेगी। यह नहीं भूलना चाहिए कि नेताओं की बयानबाजी ने पहले भी कई विवाद खड़े किए हैं, आग में घी डालने का काम हुआ है।
विक्की कौशल, अक्षय खन्ना तो एक कलाकार हैं
फिल्म ‘छावा’ में विक्की कौशल ने छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी महाराज का रोल प्ले किया था। वहीं, अक्षय खन्ना ने औरंगजेब का। दोनों ही मंझे हुए कलाकार हैं, अपना काम बखूबी करना जानते हैं। अगर संभाजी महाराज को विक्की ने बेहतरीन ढंग से दिखाया तो औरंगजेब को स्क्रीन पर उतारने में अक्षय ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। अब विवाद हुआ तो एक कलाकार उसके लिए जिम्मेदार कैसे हुआ? आखिर किस सोच ने विक्की कौशल को बॉयकॉट करने की मांग शुरू करवा दी? अब लोगों को ही यह फैसला करना चाहिए कि नागपुर विवाद के लिए विक्की कौशल और फिल्म ‘छावा’ को जिम्मेदार ठहरा देना सही है या नहीं? बाकी नेता हैं तो वो बयानबाजी करते रहेंगे।
नोट: यहां लिखे विचार लेखक के निजी हैं, इसे संस्थान के साथ जोड़कर ना देखा जाए