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- Abhay Kumar Dubey’s Column Tamil Language Has No Fight With Hindi And Sanskrit
7 घंटे पहले
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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर
तमिलनाडु के सीएम स्टालिन ने लोकसभा सीटों के परिसीमन और हिंदी-संस्कृत बनाम तमिल के मुद्दों को आपस में जोड़कर संघवाद का झंडा बुलंद करने की कोशिश की है। जबकि ये दोनों एकदम अलग-अलग प्रश्न हैं। भाषा के सवाल का परिसीमन से कोई ताल्लुक नहीं है। उनकी बातें तथ्यहीन होने के साथ-साथ तमिल जनता की भावनाओं को भड़काने वाली हैं।
इस मामले में उनकी इतनी बात सही है कि भारत के बहुभाषी यथार्थ को शिक्षा-नीति के खांचे में फिट करने के लिए बनाया गया 55 साल से ज्यादा पुराना त्रिभाषा फॉर्मूला बेकार साबित हो चुका है। सरकार और उसके सलाहकारों को इसके लिए कोई नई युक्ति खोजनी पड़ेगी।
अगर स्टालिन यहीं तक सीमित रहते, तो वे अपने पक्ष में राष्ट्रीय सहमति बना सकते थे। लेकिन उन्होंने जैसे ही हिंदी-संस्कृत के कथित साम्राज्यवाद की फिकरेबाजी का सहारा लिया, संघवाद के प्रति उनका आग्रह उतना मजबूत नहीं रह गया जितना उसे होना चाहिए था।
न तो हिंदी और न ही किसी अन्य भारतीय भाषा के साथ संस्कृत के संबंध साम्राज्यिक किस्म के रहे हैं। भारतीय भाषाओं का इतिहास इस मामले में स्पष्ट है और देशी-विदेशी विद्वानों के साहित्य में इसके पक्ष में अकाट्य प्रमाण आसानी से मिल सकते हैं। भारत में ज्ञान-रचना और कर्मकांडों की भाषा मुख्य तौर पर संस्कृत रही है। लेकिन हिंदू राजवंशों ने कभी भी अपने शासनकाल में संस्कृत को स्थानीय भाषाओं पर थोपने का प्रयास नहीं किया।
भाषाओं के प्रचार-प्रसार का इतिहास लिखने वाले निकोलस ओस्टलर ने दिखाया है कि पहली सहस्राब्दी में समूचे दक्षिण-पूर्वी एशिया में संस्कृत का प्रसार अभिजन विमर्श की भाषा के तौर पर हुआ। लेकिन इस विस्तार में किसी सम्राट, सेना, धर्म-मजहब या दाब-धौंस की भूमिका नहीं रही।
शेल्डन पोलक ने बताया है कि न केवल भारत की सभी भाषाओं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया (जावा की लिपि, थाई-सिंहला लिपि, तमिलों की ग्रंथ लिपि, कश्मीर की शारदा लिपि) में संस्कृत की किसी भी इबारत को सफलता से लिखा जा सकता है।
संस्कृत और इन भाषाओं के बीच केंद्र और परिधि का संबंध होने के बजाय परस्पर आवाजाही का नाता रहा है। संस्कृत और दक्षिण एशिया की देशभाषाएं एक निरंतर अन्योन्यक्रिया से बनने वाले संसार की वासी रही हैं। स्थानीय भाषाओं और लिपियों का तिरस्कार करने या उन्हें प्रतिबंधित करने के बजाय संस्कृत उनकी लिपियों, व्याकरण और साहित्य के विकास में सहयोगी भूमिका निभाती हुई दिखती है।
यह मानना कि तमिल का संस्कृत से कोई संबंध नहीं है, एक राजनीतिक दुराग्रह के अलावा कुछ नहीं है। “तोलकप्पियम’ के रचयिता तोलकप्पियर को इस भाषा का आदि-वैयाकरण माना जाता है। यह कृति संस्कृत के पाणिनि-पूर्व व्याकरणशास्त्र के ऐंद्रिक विचार-कुल से संबंधित है।
ऐंद्रिक विचार-कुल के प्रधान आचार्य इंद्र नाम के विद्वान थे, इसलिए उन्हीं के नाम पर इस कुल का नाम ऐंद्रिक पड़ गया। केवल पाणिनि से असंबंधित होने के कारण-भर से तमिल को संस्कृत-व्याकरण से असंबद्ध मानना इतिहास को झुठलाना है।
तमिल में संस्कृत के शब्दों की संख्या काफी है। भाषाशास्त्री देवनेय पावनार के अनुसार तमिल में इस्तेमाल किए जाने वाले कई संस्कृत शब्दों के तमिल पर्याय भी मौजूद हैं। संस्कृत में 40% शब्द ऐसे हैं, जो तमिल भाषा की धातुओं पर आधारित माने जा सकते हैं।
इस तरह की दावेदारियां तमिल को अलग भाषा करार देने की तरफ ले जाती हैं, और संस्कृत पर भारतीय भाषाओं के प्रभावों पर भी उंगली रखती हैं। हिंदी को भी अपने ही क्षेत्र की जनपदीय भाषाओं की भक्षक कहना व्यर्थ है।
आज भोजपुरी, हरियाणवी, राजस्थानी, अवधी, ब्रज जैसी जनपदीय भाषाओं को अगर विस्तार मिला है तो हिंदी उसका माध्यम बनी है। इस समीकरण में हम उर्दू को भी शामिल कर सकते हैं। हिंदी के साहित्य-संसार में नागरी में लिखा गया उर्दू साहित्य प्रचुर मात्रा में पढ़ा जाता है।
अगर कोई छात्र हिंदी साहित्य पढ़ता है तो उसे भक्तिकालीन कविता पर महारत हासिल करनी पड़ती है, और यह साहित्य इन्हीं जनपदीय भाषाओं में रचा गया है। भारतीय भाषाओं के आपसी संबंध हमेशा से मधुर रहे हैं। चूंकि हिंदी एक से अधिक प्रांतों की भाषा है, इसलिए उसे संविधान-निर्माताओं ने राजभाषा बनाया। लेकिन उसकी यह पदवी यूरोपीय राष्ट्रभाषा जैसी नहीं है।
हिंदी के हर बड़े शब्दकोश में जनपदीय भाषाओं से हिंदी के साम्य के उदाहरण मिल जाएंगे। हिंदी का संस्कृत से संबंध उतना ही है जितना अन्य भारतीय भाषाओं से है। दरअसल, दक्षिण भारतीय भाषाएं अधिक संस्कृत-निकट हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)