एन. रघुरामन का कॉलम:  आपके पास है संस्कृति, साहित्य और अच्छी आदतों का ‘मसाला डिब्बा’
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एन. रघुरामन का कॉलम: आपके पास है संस्कृति, साहित्य और अच्छी आदतों का ‘मसाला डिब्बा’

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1 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

एक आम भारतीय रसोई में खाना पकाने के लिए, मसाला डिब्बा सबसे अनिवार्य है। लेकिन इस डिब्बे के सौंदर्यशास्त्र पर किसी का ध्यान नहीं जाता। इसके अंदर, सात छोटी कटोरियां, फूल के आकार में रखी रहती हैं। इनमें रखे अलग-अलग मसालों संग अक्सर लापरवाही भरा व्यवहार होता है।

हालांकि इस उदासीनता के पीछे अनादर नहीं है, बल्कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि रसोई की रानियां इस मसाला डिब्बे से भली-भांति परिचित हैं और यह उनके दिल के करीब है। वहीं, रसोई की कुछ रानियां ऐसी भी हैं, जो अपने राजकुमार-राजकुमारियों (बेटा-बेटी) को सिखाती हैं कि मसाला डिब्बे को सलीके से कैसे संभालें।

मैं बचपन में देखता था कि अगर राई का एक दाना भी कटोरी से निकलकर डिब्बे में गिर जाए, तो मां सातों कटोरी निकालकर, उस दाने को वापस राई वाली कटोरी में डालती थीं। इसलिए जब भी मसाले के डिब्बे का ढक्कन खुलता था, तो नज़रों के सामने रंग और हवा में खुशबू होती थी। यह किसी रंगोली से कम नहीं लगता था।

मेरी बहन और मुझे इसका कारण मां ने बताया था, जो अलग-अलग संस्कृतियों के बारे में पढ़ने की शौकीन थीं। उन्होंने बताया कि थाईलैंड जैसे दक्षिण एशियाई देशों में मसाले इस्तेमाल करने से जुड़ी एक परंपरा है। वहां जब दूल्हे का परिवार, शादी के लिए लड़की देखने जाता है, तो दूल्हे की मां या दादी कान लगाकर यह सुनने की कोशिश करती हैं कि लड़की चाय या नाश्ते के लिए मसाले कैसे पीस रही है।

वे मानते हैं कि होने वाली दुल्हन की खूबसूरती, उसके मसाले पीसने के तरीके से झलकती है। वह जिस तरह से स्वाद बढ़ाने के लिए, मसाला पीसते हुए कलाइयां घुमाती है, उससे आत्मविश्वास दिखता है और यह काम किसी कविता जैसा लगता है।

मसाला डिब्बे की खूबसूरती बनाए रखने के लिए, राई के एक दाने को संभालने वाले व्यवहार का असर, मेरे व्यवहार पर भी बचपन से है। मैंने कभी डाइनिंग टेबल गंदी नहीं छोड़ी। बड़े होकर भी, मैंने किराए का मकान खाली करते समय कभी गंदा नहीं छोड़ा।

इस अखबार में काम करने के दौरान, मैं कई शहरों में किराए के मकानों में रहा। मकान मालिक हमेशा तारीफ़ करते थे कि मैं घर कितने सलीके से रखता हूं। मेरे एक मकान मालिक, इंदौर निवासी ऑप्थोमोलॉजिस्ट, डॉ परवानी ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा था, ‘रघुजी ने मेरा घर उससे ज्यादा अच्छा वापस किया, जैसा मैंने उन्हें दिया था।’

मुझे ये छोटी-छोटी बातें, तब याद आईं, जब मैंने प्रयागराज के लोगों और पुलिसकर्मियों के बारे में सुना, जिन्होंने कुंभ मेला क्षेत्र में और उसके आस-पास, लौट रहे भक्तों के लिए भंडारों का आयोजन किया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन भी इस नेक काम में शामिल हुआ।

एयू अधिकारियों ने आर्ट्स कैंपस को खोलने की मंजूरी दे दी, जिसे प्रयाग स्टेशन की ओर जाने वाले भक्तों ने रात बिताने के लिए इस्तेमाल किया। स्थानीय लोगों ने भी थके हुए भक्तों की परेशानी समझते हुए, देर रात तक खाने के अस्थायी स्टॉल लगाए।

ऐसी ही मानवता हाल ही में अमेरिका में भी दिखी, जहां जंगल की आग में कई धनी परिवारों के घर जल गए। ऐसे में उनके ज्यादातर कर्मचारियों ने अपने मालिकों के लिए खाना बनाया। भले ही देशों के बीच सीमाएं हों, लेकिन ‘अतिथि देवो भव:’ की भावना सीमाओं से परे चली गई है।

फंडा यह है कि अगर जीवन के मसाला डिब्बे में, अच्छी संस्कृति, साहित्य और आदतें हैं, तो हमारी सोच और भावनाएं समाज और देश की सीमाओं से भी परे जा सकती हैं।

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