एन. रघुरामन का कॉलम:  क्या ‘विजुअल एजुकेशन’ से कर्मचारी अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं?
टिपण्णी

एन. रघुरामन का कॉलम: क्या ‘विजुअल एजुकेशन’ से कर्मचारी अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं?

Spread the love


  • Hindi News
  • Opinion
  • N. Raghuraman’s Column Can ‘visual Education’ Help Employees Perform Better?

21 मिनट पहले

  • कॉपी लिंक
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

नवंबर 2024 के आखिर तक ट्रांसजेंडर बी. श्रावनी चिन्नी (28) तेलंगाना के व्यस्त शहर सिकंदराबाद के उसी ट्राफिक सिग्नल पर दस सालों से भीख मांगने का काम करती थीं। हर बार जब ट्राफिक लाइट लाल होती, वह रुकी हुई गाड़ियों की तरफ भागती और कुछ मदद मांगती।

कुछ लोग मदद कर देते पर कुछ लोग अपना मुंह मोड़ लेते या ऐसे दिखाते कि अपने फोन में व्यस्त हों। और उसे पता होता था कि कब सिग्नल लाल से हरा हो जाएगा और तेजी से दूसरी तरफ जाना है, जहां का सिग्नल रेड होने वाला है।

दिसंबर 2024 में ट्रांसजेंडर्स के लिए 50 पोस्ट वाला सरकारी विज्ञापन निकला, जिसमें छह महीने के एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत ट्रैफिक सहायक के तौर पर उनकी नियुक्ति की जानी थी। लिखित परीक्षा के बाद फिजिकल टेस्ट और फिर 20 दिन की ट्रेनिंग के बाद 39 ट्रांसजेंडर्स ने ट्रैफिक पुलिस के साथ ट्रैफिक सहायक के रूप में जॉइन किया और शहर के अलग-अलग चौराहों पर तैनाती हो गई, उनमें से चिन्नी एक थी, जो कि सुबह 8 बजे से काम पर जुट जाती थीं।

दिलचस्प बात है कि चिन्नी की जहां तैनाती हुई, उस चौराहे के बारे में वह सबकुछ जानती थीं, यहां तक कि फुटपाथ पर टूटी हुई टाइल तक के बारे में पता था क्योंकि इसी जगह पर उसने पिछले 10 साल भीख मांगी थी! चूंकि दिसंबर 2024 में पिछले हफ्ते से उसके इस काम ने सबका ध्यान खींचा, इसमें मीडिया भी था।

इससे लोगों को ताज्जुब हुआ कि उसके जैसे लोगों की आंखों के सामने लंबे समय तक ऐसे हालात होने से वे इस काम को बेहतर तरीके से समझते हैं, क्योंकि वे विभिन्न वाहन मालिकों की मानसिकता को अच्छी तरह समझते हैं और इसलिए उन्हें ठीक तरह से दिशा-निर्देश दे सकते हैं और इससे ट्रैफिक प्रबंधन के सबसे अच्छे परिणाम हासिल हो सकते हैं। और इसका जबाव स्पष्ट रूप से हां है।

मैं इस एक तथ्य पर गहरा यकीन रखता हूं कि भारत 100% साक्षर है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कई लोग ऐसे हैं जो देखकर और सुनकर भी साक्षर हुए हैं। वे सुन सकते हैं और काम कर सकते हैं या देख सकते हैं और कोई काम करते हैं।

यही कारण है कि मैं विजुअल ट्रेनिंग मॉड्यूल का पुरजोर समर्थक हूं। उदाहरण के लिए कुछ खास नौकरी में नियोक्ता को सिर्फ बदल-बदल कर कामगार मिलते हैं। मतलब हर दिन या एक-एक दिन छोड़कर कर्मचारी बदल जाते हैं और इस अंतराल में उन्हें प्रशिक्षित करना मुश्किल हो जाता है।

जैसे अस्पताल में बेडशीट बदलने वाला हाउसकीपिंग स्टाफ ज्यादातर मामलों में कॉन्ट्रैक्चुअल होता है और वे एक अस्पताल के साथ स्थाई नहीं होते क्योंकि उनका ठेकेदार उनकी पोजिशन बदलता रहता है। और इस स्थिति में उन्हें तीन मिनट की वीडियो फिल्म छह से सात बार दिखाई जा सकती है कि कैसे अस्पताल की चादरें बदलें, फर्श को कैसे साफ करें..इससे वे भले परफेक्ट न हों, पर स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर तो समझ सकते हैं।

अगर यही ट्रेनिंग मॉड्यूल उन्हें कागज पर लिखकर दिया जाए, तो इसका कम प्रभाव पड़ेगा। चिन्नी का यह प्रदर्शन उसे सालों से मिल रही विजुअल एजुकेशन के कारण है, जो कि उसके अवचेतन मन में गहराई से समाई हुई थी।

वास्तव में, नियोक्ता को अस्थायी कर्मचारियों को तैयार करने के लिए टीवी स्क्रीन या या कमरे की भी जरूरत नहीं। वे बस उनके मोबाइल फोन में ट्रेनिंग वीडियो भेज सकते हैं क्योंकि उनमें से अधिकांश के पास मोबाइल होते हैं और इससे वे बार-बार उस वीडियो को देखकर वैसे काम करने के अभ्यस्त हो जाएंगे।

याद रखें कि कुछ मामलों में, अकेले दृश्य प्रशिक्षण से 100% परिणाम नहीं मिलेगा। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति एक फॉर्म भर रहा है। ऐसे मामलों में यदि व्यक्ति को वह लिखने के लिए कहा जाता है जो उन्होंने देखा था, तो यह प्रभावशाली परिणाम लाता है। आंखों ने जो तस्वीरें देखीं, उनके साथ हाथ-दिमाग का समन्वय उन्हें एक बेहतर काम करने वाला बनाता है।

फंडा यह है कि इसकी शुरुआत अपनी मेड को कपड़े फोल्ड करने वाली वीडियो दिखाकर करें। ऐसे बने-बनाए वीडियो सोशल मीडिया पर हैं। और फिर देखें कि आपके कपड़े कितनी सफाई से घड़ी होते हैं। इसमें दोराय नहीं कि विजुअल एजुकेशन से परफेक्शन आता है।

खबरें और भी हैं…



Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *