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- N. Raghuraman’s Column Is The ‘2 Minute Noodles’ Incentive Necessary For Children?
3 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
‘टीचर्स कभी नहीं सिखा सकते। स्टूडेंट्स को ही सीखना पड़ता है। यह स्टूडेंट्स की जिम्मेदारी है कि वही टीचर्स को सिखाने के लिए प्रेरित करें। मैंने अपने वरिष्ठों से सीखा कि ज्ञान एक तेज बहती नदी की तरह है। ज्ञान की यह नदी टीचर, मेंटर या गुरु के पास से बहती रहती है। यह स्टूडेंट्स पर निर्भर करता है कि उस नदी से वह कितना पानी भर पाते हैं- एक कप, एक बाल्टी या फिर ट्रक भरकर?
जब भी मैं अपने कमरे में रियाज़ करता, तो हमेशा उनका ध्यान खींचना चाहता था। (यहां वो अपने पिता का जिक्र कर रहे हैं) और उनका ध्यान मेरी ओर तभी आता, जब मुझे सिखाए सबक को मैं थोड़ा तोड़-मरोड़कर पेश करके उसे दूसरी तरह से बजाता। जब मैं ऐसा करता, तो मेरी इस कोशिश पर बाहर से पिता की स्वीकारोक्ति भरे स्वर में ‘हम्म्म्म्म’ की आवाज आती।
और फिर वह अचानक दरवाजे पर आकर खड़े हो जाते और दूसरी ताल बजाने के लिए कहते। उनके इन शब्दों से मुझे प्रेरणा मिलती क्योंकि वह मेरे प्रयास की आलोचना करने या उसे कोई मान्यता देने के बजाय और कई तरीके से प्रयोग करने के लिए मुझे गाइड करते। मेरे पिता से मुझे यह प्रेरणा मिली।’
दिवंगत उस्ताद जाकिर हुसैन साहब अपने एक पुराने इंटरव्यू में अपने पिता उस्ताद अल्ला रक्खा के बारे में यह बात कर रहे थे। दरवाजे पर खड़े होकर एक हाथ में कागज और दूसरे हाथ की अंगुलियों से ताल की सीख दे रहे एक टीचर (पढ़ें गुरु) के इन सबक ने जाकिर हुसैन को न सिर्फ अपने पिता की विरासत को आगे ले जाने में मदद की, बल्कि इसके चलते ही वह तबला वादन को उस ऊंचाई तक ले गए, जहां यह पहले कभी नहीं था।
उनके पिता सह गुरु चाहते थे कि जाकिर व्यापक लोगों तक शास्त्रीय संगीत को लेकर जाएं और इसको सबके लिए सुलभ बनाते हुए उन्हें मंत्रमुग्ध करते हुए संगीत को एक दिव्यता के अहसास से जोड़ंे। और उस्ताद जाकिर हुसैन ने बिल्कुल यही किया, जो 16 दिसंबर 2024 को अपने तबले को अनाथ छोड़कर इस दुनिया से रुख़सत हो गए। मैं परिवार में जब भी किसी से अपने पिता के बारे में बात करता हूं, तो मुझे जाकिर हुसैन जी का वो इंटरव्यू याद आ जाता है। जब मुझे पहली सैलरी मिली और वह पैकेट घर लाया, तो मेरे अंदर का दिल नाच रहा था कि मेरे पिता मुझे गले लगाएंगे और इस मुकाम पर पहुंचने के लिए मेरी सराहना करेंगे। लेकिन हुआ इसके उलट। उन्होंने अपने अखबार से नजरें तक नहीं उठाईं।
बस ‘बढ़िया’ कहा और फिर बोले कि इसे अपनी मां को दे दो और उन्हें इसे पूजा वाले कमरे में रखने के लिए कह दो। तुम बाथरूम जाकर हाथ-पैर धो लो और ईश्वर की प्रार्थना करो। छह महीने की सैलरी के बाद जाकर एक दिन पिता ने कहा, ‘तुम्हें जिम्मेदार बनता देखकर मुझे खुशी हो रही है, तुमने बिना कोई छुट्टी लिए छह महीने का प्रोबेशन पीरियड पूरा किया और अब तुम स्थाई हो गए हो। अब याद रखना कि अपनी छोटी बहन को अच्छा पढ़ाने-लिखाने और उसकी किसी अच्छी जगह शादी करने में तुम्हें मेरी मदद करनी होगी।’ वो शब्द मेरे कानों में सिर्फ संगीत की तरह नहीं थे। बल्कि उसने उद्वेलित कर दिया कि मैं जिंदगी में आर्थिक रूप से विवेकपूर्ण बनूं।
थोड़ा रुककर खुश होने की उनकी इस आदत को, उनके जाने के बाद मैं आज भी जीता हूं। 1970 में मिशेल और एबेसेन के अपने एक शोध में कहा कि “देर से संतुष्ट होने की आदत, दूरगामी फायदों के लिए तात्कालिक लाभ को जाने देने की काबिलियत है।’ आमतौर पर, थोड़ा रुककर होने वाली संतुष्टि का मूल्यांकन उन कामों में किया जाता है जिसमें व्यक्ति भविष्य के किसी बड़े पुरस्कार (पढ़ें जिंदगी) की खातिर तुरंत मिलने वाले छोटे-मोटे प्रोत्साहन (2 मिनट नूडल्स) को जाने देता है।
फंडा यह है कि फटाफट या तत्काल खुशी वाली दुनिया में अगर अपने बच्चों को किसी क्षेत्र में उत्कृष्टता के शिखर पर देखना चाहते हैं, तो थोड़ा रुककर संतुष्ट होने वाली आदत के बीज बोएं। उस्ताद जाकिर हुसैन साहब की तरफ से यह परवरिश की एक टिप हो सकती है।