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- N. Raghuraman’s Column Children Want To Feel Confidence In Our Advice, Not Confrontation
4 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
एक हाथी हमारी आंखों पर पड़ने वाली सुबह के सूरज की किरणों को रोकते हुए मैदान के बीच से गुजरा। वह हमारी गाड़ी की ओर ऐसे आ रहा था मानो दूर कोई पुलिस अधिकारी सीटी बजाते हुए हमें ट्रैफिक से दूर गाड़ी रोकने को कह रहा हो।
‘घबराइए नहीं’, हमारे सफारी गाइड ने कहा। उस विशालकाय हाथी ने मेरे चेहरे से आधा मीटर की दूरी पर अपनी झुर्रीदार सूंड को सावधानी से अपने नथुने हिलाते हुए दिखाया। सूंघने की अपनी अद्वितीय इंद्रियों का उपयोग करते हुए उसने हमें परखा और हममें से हरेक एक-एक करके उसके इस गंध-परीक्षण में उत्तीर्ण हुए।
उसने अपने विशाल कान फड़फड़ाए, पास के झुंड में लौटा और फिर से ऊंची घास को रौंदता हुआ कहीं गुम हो गया। मुझे यह भी नहीं पता कि मैंने उस समय ठीक से सांस भी ली थी या नहीं। हाथी के साथ यह मेरा अविस्मरणीय क्षण था, जब मैं 1990 के दशक में एक सफारी में दक्षिण अफ्रीका के तत्कालीन राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला के संग था।
अब जरा सोचिए कि अगर हाथियों के उस झुंड का हर सदस्य ऐसा ही करे तो आपका क्या होगा? वे आपके पास आएं, आप में से हर एक को सूंघें और फिर लौट जाएं। और कल्पना कीजिए अगर गज-परिवार का कोई सदस्य आपको पसंद नहीं करता हो तो। मैं इस बुधवार को नर्मदापुरम में ऐसी ही स्थिति में था, जिसे पहले होशंगाबाद कहा जाता था।
यह भोपाल से करीब 75 किमी दूर है। एक के बाद एक सैकड़ों बच्चे आगे आए और बिना यह सोचे कि शिक्षक क्या सोचेंगे, सवाल पूछे। उन्होंने मुझसे खुलकर बहुत ही पेचीदा वो सवाल पूछे, जो 12वीं कक्षा के उन छात्रों को तंग करते हैं, जो छोटे शहर और स्कूल के आरामदायक माहौल से निकलकर बड़े शहर और विश्वविद्यालय में जाने वाले हैं।
जैसे एक बड़े गज-परिवार का बच्चा पहले आपके पास आता है, आपको उसी तरह से सूंघता है जैसे उसके परिवार का कोई बुजुर्ग करता हो, फिर मुड़कर आपको थोड़ा धक्का देता है और कुछ ही मिनटों में आपके साथ खेलना शुरू कर देता है, ठीक उसी तरह पंडित रामलाल शर्मा विद्यालय का एक अंतिम वर्ष का छात्र मेरे सामने खुल गया और बिना किसी संकोच के सबके सामने उसने स्वीकार किया कि वह सर्दियों में एक दिन छोड़कर नहाता है।
जब श्रोता उसकी इस बात पर हंसने लगे, तो मैंने अपना हाथ उसके कंधे पर रखा और उससे दूर रहने के बजाय उसे अपने पास बैठाया। इसने उसे फिर से आत्मविश्वास दिया। और तब मैंने उसे सलाह देने का साहस किया कि रोजाना नहाना इसलिए जरूरी है, क्योंकि हम अप्रत्याशित रूप से नए लोगों से मिल सकते हैं, जैसा कि आज उसके साथ मुझसे मिलते समय हुआ।
तभी मुझे एहसास हुआ कि ‘पढ़ लो, कम से कम नौकरी तो मिल जाएगी’ कहने के बजाय हमें कहना चाहिए, ‘पढ़ लो, पक्का बढ़िया नौकरी मिलेगी।’ ये बच्चे हमारी बातचीत में संघर्ष नहीं आत्मविश्वास की गंध लेना चाहते हैं।
बातचीत में मैं उनमें जिम्मेदारी का एहसास लाने की कोशिश कर रहा था और मैंने पूछा, ‘क्या आपको नहीं लगता कि आने वाले दिनों में आपकी पीढ़ी को इस समाज को चलाने की जिम्मेदारी उठानी होगी और आपको क्या लगता है कि हम इस ग्रह पर कितने समय तक रहेंगे?’ उन्होंने तुरंत जवाब दिया, ‘अभी और 20-30 साल,’ जिससे पूरा पंडाल ठहाके लगाकर हंसने लगा।
मैंने उनकी स्पष्टवादिता के लिए उनकी प्रशंसा की। कार्यक्रम में मैंने जो सहजता उत्पन्न की, उससे विभिन्न स्कूलों के कई बच्चे कतार में लग गए और उन्होंने भी वैसे कई सवाल पूछे, जिनसे वो इन दिनों जूझ रहे थे। यह मेरे लिए एक सबक था। मैंने सीखा कि अगली पीढ़ी नकारात्मकता से आकर्षित नहीं होती, बल्कि वे नकारात्मकता में आत्मविश्वास और सकारात्मकता में संघर्ष को सूंघ लेने के कारण निर्णय लेते हैं।
फंडा यह है कि बच्चे हमारे सकारात्मक विचारों और सलाहों में आत्मविश्वास को सूंघ लेना चाहते हैं। लेकिन जब वे इसके बजाय टकराव को सूंघते हैं तो हमारे शब्दों में विश्वास करना उनके लिए कठिन हो जाता है।