एन. रघुरामन का कॉलम:  सामाजिक उपक्रम शहरों की ओर ग्रामीणों का पलायन रोक सकते हैं
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एन. रघुरामन का कॉलम: सामाजिक उपक्रम शहरों की ओर ग्रामीणों का पलायन रोक सकते हैं

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58 मिनट पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

2016 में, 24 वर्षीय चंद्रभान पटेल अपने गांव बीना-बारह में लौटकर आए थे। यह भोपाल से 340 किलोमीटर दूर एक बहुत ही कम आबादी वाला छोटा-सा गांव है, जहां कोई आर्थिक गतिविधि नहीं है। लेकिन जब पटेल ने जैन समुदाय द्वारा महाकवि पंडित भूरामल सामाजिक सहकार न्यास नामक धर्मार्थ ट्रस्ट के माध्यम से चलाए जा रहे हथकरघा प्रशिक्षण कार्यक्रम के बारे में सुना, तो अपनी किस्मत आजमाना चाही।

वे आजीविका की तलाश में इधर-उधर भागते-भागते और कमाई का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा रहने-खाने पर खर्च करते-करते थक गए थे। उन्होंने सबसे पहले धागा कातना, उससे कपड़ा बुनना और फिर उससे परिधान बनाना सीखा। फिर वे अपने बड़े भाई को भी इस काम में ले आए, जो उसी गांव में रहते थे लेकिन किसी और के लिए मजदूर के रूप में काम करते थे।

चंद्रभान ने अपने भतीजे और बहनोई और अन्य रिश्तेदारों को भी अपने साथ आने को कहा और वे सभी एक संयुक्त परिवार के रूप में गांव के घर में साथ रहने लगे। आज पूरा परिवार न केवल अपनी पुश्तैनी जमीन की देखभाल करता है, बल्कि वैकल्पिक आय के तौर पर कताई भी करता है और हर महीने करीब 1 लाख रुपए कमाता है। जबकि पहले यही सदस्य दिल्ली और सूरत जैसी जगहों पर अलग-अलग रहते थे।

निर्भय सिंह गौंड भी बीना-बारह से 12 किमी दूर स्थित एक स्कूल में 4,500 रु. वेतन पर हिंदी पढ़ाने वाले अस्थायी शिक्षक थे। इसके लिए उन्हें साइकिल से जाना पड़ता था क्योंकि आज भी गांव में किसी तरह का सार्वजनिक परिवहन नहीं है। यह न केवल थकाऊ था बल्कि उनका समय भी ले रहा था।

फिर वे भी हथकरघा में शामिल हो गए और खुद को तेजी से प्रशिक्षित किया। धीरे-धीरे वे प्रति माह 6000 रु. कमाने लगे और आज वे प्रति माह 20,000 कमाते हैं। साथ ही अपने खेतों की देखभाल भी करते हैं। बाद में उनके छोटे भाई ने भी उनका साथ दिया। आज इन दो व्यवसायों- कृषि और हथकरघा- ने उनके परिवार को आर्थिक रूप से स्थिर बना दिया है और पिता सेवानिवृत्त होकर पोते-पोतियों की देखभाल कर रहे हैं।

इन दोनों की ही तरह कई अन्य लोग 17 ऐसे केंद्रों में भी सेवाएं दे रहे हैं, जिनमें से सात तो अलग-अलग जेलों में हैं- मध्य प्रदेश के सागर से लेकर दिल्ली की तिहाड़ तक। वे 1,500 से अधिक परिवारों की आजीविका कमाने में मदद कर रहे हैं। ट्रस्ट का प्रयास सिर्फ रोजगार देना नहीं है।

यह कई स्वतंत्र उद्यमी भी बनाता है। वे 40,000 रुपए की लागत वाली हथकरघा मशीन दान करते हैं और उन्हें कच्चा माल देते हैं। फिर उनसे तैयार उत्पाद खरीदकर बाजार में बेचते हैं। शनिवार की सुबह मैं बीना-बारह गया, जिसे दिगम्बर जैन समुदाय के तीर्थ स्थलों में से एक माना जाता है। मेरा वहां पर न सिर्फ चंद्रभान और निर्भय, बल्कि कई ऐसे परिवारों से भी परिचय कराया गया, जो अपने घर में ऐसी हथकरघा सुविधाएं चलाते हैं, क्योंकि उनके लिए बिजली की जरूरत नहीं होती।

यह फेसिलिटी केवल तौलिए और चादरें ही नहीं बनाती, बल्कि वे हर राज्य की खासियत वाली साड़ियां भी बनाते हैं, लेकिन केवल सूती कपड़े से। उनके कुर्ते, कमीज और यहां तक कि जींस भी ऐसे नहीं दिखते, जैसे कि उन्हें किसी छोटे गांव के लोगों ने बुना हो।

दिलचस्प बात यह है कि महिलाओं की कुर्ती पर की गई कढ़ाई वहां से सात किलोमीटर दूर देवरी नामक एक गांव की 150 से ज्यादा महिलाओं द्वारा की जाती है। श्रमधन नामक इस ब्रांड के उत्पाद वर्तमान में छह दुकानों से बेचे जाते हैं, वहीं उनकी ऑनलाइन बिक्री तो दुनिया भर में होती है।

वहां मैंने एक और व्यक्ति को देखा, जिसे आए केवल चार दिन ही हुए थे और वह कुछ सौ रुपए स्टाइपेंड कमा रहा था। धागे से कपड़ा बुनने में उससे कई गलतियां हो रही थीं। उसका ताना-बाना परफेक्ट नहीं था। लेकिन प्रबंधक ने कहा कि वह कुछ ही दिनों में अच्छे से यह कला सीख लेगा।

फंडा यह है कि श्रमधन की तरह छोटे पैमाने पर शुरू करें। यह आज नहीं तो कल, शहरों की ओर ग्रामीणों के पलायन को रोकने में सौ फीसदी सफल होगा।

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