6 घंटे पहले
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एन. रघुरामन मैनेजमेंट गुरु
मेरे कपड़े न तो उन दिनों महंगे हुआ करते थे और न ही वे आज हैं। उन दिनों एक परिवार के तौर पर हम महंगे कपड़े खरीदना वहन नहीं कर सकते थे और आज भी मैं इस पर ज्यादा खर्च करना पसंद नहीं करता, क्योंकि मेरा मानना है कि कपड़ों का मकसद शरीर को ढकना भर ही है।
लेकिन वे साफ-सुथरे और अच्छी तरह से इस्तरी किए हुए जरूर होने चाहिए। इसलिए होली खेलना मेरे लिए प्राथमिकता नहीं थी। इसलिए नहीं कि मैं बचपन में होली नहीं खेलना चाहता था, बल्कि इसलिए कि मैं अपने कपड़ों को खराब नहीं कर सकता था।
शायद मेरी मां ने रंगों के त्योहार में भाग न ले पाने की उदासी को मेरे चेहरे पर देखा होगा। इसीलिए उन्होंने तुरंत मेरे पुराने कमीज-पतलून निकाले, उनकी सिलाई खोली और उन्हें मशीन से फिर से सिल दिया। महज 30 मिनट बाद मैं रंगों का उत्सव मना रहा था।
फिर साल दर साल, वे न केवल होली के दो दिन पहले ही मेरी ड्रेस तैयार करती रहीं, बल्कि मेरे चचेरे भाई-बहनों और पड़ोस के बच्चों को मेरे दुरुस्त किए हुए पुराने कपड़े भी देना शुरू कर दिया।
साथ ही उन्होंने उनके कपड़ों की मरम्मत की भी जिम्मेदारी ली, जो हमारे जैसी ही आर्थिक स्थिति में थे। धीरे-धीरे स्थिति बदली और अब हम होली पर अपने कुछ कपड़ों को खराब करने का जोखिम उठा सकते थे। लेकिन मां जब तक जीवित रहीं, जरूरतमंदों के लिए कपड़े ठीक करती रहीं। मैं उनसे कहता था कि अगर वे चाहें तो मैं उनके लिए भी कपड़े खरीद सकता हूं, लेकिन वे हमेशा यह कहकर मना कर देती थीं कि मैं दीपावली के दौरान यह उदारता दिखा सकता हूं, लेकिन होली के दौरान वे जो कर सकती हैं, करेंगी।
उनके निधन के बाद से, मैं हर होली के त्योहार पर उन लोगों के बच्चों को कुछ कपड़े बांटता हूं, जो मुझे जानते हैं और जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं। मेरी यादें तब ताजा हो गईं, जब मैंने वडोदरा के घनश्याम पाटीदार के बारे में सुना। उन्होंने अपने बेटे परीक्षित के क्रिकेट दस्तानों की मरम्मत करने का फैसला किया था, ताकि वह उन्हें लंबे समय तक इस्तेमाल कर सके।
ऐसा नहीं है कि वे नए दस्ताने खरीदने में असमर्थ थे, लेकिन उनके बेटे को यकीन था कि वह दस्ताना उसका लकी चार्म है और उसने उसे फेंकने से इनकार कर दिया। तभी घनश्याम को एहसास हुआ कि क्रिकेट के सामान बहुत महंगे होते हैं।
दस्तानों के साथ-साथ लेग पैड भी अक्सर खराब हो जाते हैं, जिन्हें बहुत कम कीमत पर ठीक किया जा सकता है, खासकर वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले उन बच्चों के लिए जो हर कुछ महीनों में नए दस्ताने खरीदना वहन नहीं कर सकते। तब उन्होंने खुद सैकड़ों दस्तानों और लेग पैड को मामूली कीमत पर ठीक करने की कला में महारत हासिल की।
लेकिन घनश्याम अपनी इस सोच में एक कदम आगे निकल गए। उन्हें एहसास हुआ कि आखिर वे कब तक देश भर के हर क्रिकेट खेलने वाले गरीब बच्चे के लिए इन सामानों की मरम्मत करवा सकेंगे। ऐसे में उन्होंने लोगों को कम कीमत पर ऐसे क्रिकेटिंग-गियर की मरम्मत का प्रशिक्षण देने का फैसला किया। उन्होंने पिछले कुछ सालों में यूपी, एपी, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, एमपी और छत्तीसगढ़ सहित अन्य राज्यों के करीब 25 लोगों को प्रशिक्षित किया है।
उन्होंने क्रिकेट के सामान की मरम्मत के प्रशिक्षण के बारे में लोगों को बताना शुरू किया कि कैसे यह न केवल लोगों की अपनी आजीविका कमाने में मदद कर सकता है, बल्कि गरीब पृष्ठभूमि से आने वाले उभरते क्रिकेटरों के लिए भी सहायक है। वे सभी अब अपने-अपने राज्यों में 300 रुपए प्रति जोड़ी से भी कम कीमत पर क्रिकेटिंग-गियर की मरम्मत कर रहे हैं।
उनका एकमात्र मिशन उन बच्चों की मदद करना है, जिनके पास बड़े सपने हैं लेकिन उन्हें हासिल करने के साधन नहीं। ये और बात है कि घनश्याम इसके साथ ही ऐसे क्रिकेटिंग-गियर्स के आविष्कारक भी बन गए हैं, जो क्रिकेटरों के लिए खेलना आरामदायक और आसान बनाते हैं। इनमें ऐसा हेलमेट भी शामिल है, जो अंदर से ठंडा रहता है और कानों के लिए असुविधाजनक नहीं होता।
फंडा यह है कि देना असल में कुछ पाना है। और इसके लिए होली से बेहतर त्योहार क्या हो सकता है। आप सभी को होली की शुभकामनाएं।