मिन्हाज मर्चेंट का कॉलम:  स्वस्थ आलोचना मंजूर है पर दुष्प्रचार हमें स्वीकार्य नहीं
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मिन्हाज मर्चेंट का कॉलम: स्वस्थ आलोचना मंजूर है पर दुष्प्रचार हमें स्वीकार्य नहीं

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3 घंटे पहले

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मिन्हाज मर्चेंट, लेखक, प्रकाशक और सम्पादक - Dainik Bhaskar

मिन्हाज मर्चेंट, लेखक, प्रकाशक और सम्पादक

एक स्तम्भकार ने हाल ही में लिखा कि ‘भारत एक अप्रासंगिक देश है।’ उन्होंने भारत को नीचा दिखाने के लिए चीन का सहारा लिया। इससे पहले एक पूर्व सम्पादक ने भी एक पूरा कॉलम भारत का मजाक उड़ाने और चीन की प्रशंसा करने के लिए समर्पित कर दिया था। यकीनन, एआई, ईवी, बुनियादी ढांचे और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में चीन की तरक्की को स्वीकार करने में कुछ गलत नहीं है।

हम उसकी सफलता से कुछ सीख सकते हैं। भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन ने अपने आर्थिक सर्वेक्षण 2025 में इस ओर इशारा भी किया था। लेकिन भारत ने पिछले 10 वर्षों में जो प्रगति की है, उसको कम करके आंकना तो एक छिपे हुए राजनीतिक एजेंडे को ही दर्शाता है।

जाने-माने समाज वैज्ञानिक दीपांकर गुप्ता ने अपने हाल के एक लेख में इस विषय में संतुलन स्थापित करते हुए लिखा कि तमाम मानदंडों के अनुसार, हम आज सबसे अच्छे समय में जी रहे हैं, लेकिन हम शिकायतें इस तरह से करते हैं मानो यह कोई बुरा दौर हो।

1800 से हमारी आबादी सात गुना बढ़ गई है। फिर भी, हमारे पास पहले से कहीं ज्यादा भोजन है। 19वीं सदी में भारत के 80% लोग भयंकर गरीबी में रहते थे, वर्तमान में यह लगभग 8.5% है। तब 88% लोग निरक्षर थे, आज 10% ही हैं। भारत सहित पूरी दुनिया में जीवन-प्रत्याशा भी दोगुनी हो गई है। पहले के समय में 50% नवजात शिशु पांच साल की उम्र से पहले मर जाया करते थे, अब यह दर 4% है।

लेकिन हम कभी खुश नहीं होते। जीवन-स्तर, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे में बड़े पैमाने पर सुधार के बावजूद, हम और अधिक चाहते हैं। तब भी, रचनात्मक आलोचना हमेशा स्वागतयोग्य है, लेकिन पूर्वग्रह से ग्रस्त आलोचना कारगर साबित नहीं हो सकती। वैसे भी दुष्प्रचार से प्रेरित लेखन दुर्भावना से प्रेरित राजनीति का मौसेरा भाई ही कहलाता है।

यूपीआई के माध्यम से तत्काल भुगतान, बड़े पैमाने पर सेवाओं के डिजिटलीकरण और बुनियादी ढांचे के विकास को भारत के पेशेवर-आलोचकों द्वारा काफी हद तक नजरअंदाज किया जाता है। वे सभी एक गलती जरूर करते हैं- भारत की प्रति व्यक्ति आय की गणना करने के लिए गलत मानकों का उपयोग करना।

अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपए की मौजूदा विनिमय दर पर भारत की प्रति व्यक्ति आय 3,000 डॉलर से कम ठहरती है, जो कि अफ्रीका के कई देशों की प्रति व्यक्ति आय से भी कम है। लेकिन द इकोनॉमिस्ट ने बताया है कि भारत सहित ग्लोबल साउथ के देशों में मुद्राओं का बहुत कम मूल्यांकन किया गया है।

लंदन स्थित प्रकाशन बिग मैक इंडेक्स के अनुसार, भारत की प्रति व्यक्ति आय 3,000 डॉलर से काफी अधिक होगी। आईएमएफ और विश्व बैंक भी इससे सहमत हैं। वे प्रति व्यक्ति आय (पर कैपिटा इनकम) को क्रय-शक्ति (पर्चेसिंग पॉवर पैरिटी या पीपीपी) द्वारा मापते हैं। इसमें विभिन्न देशों में जीवनयापन की लागत को ध्यान में रखा जाता है।

उदाहरण के लिए, मुंबई के किसी विकसित उपनगर में 2बीएचके फ्लैट किराए पर लेने पर 70,000 रुपए प्रति माह खर्च आएगा। जबकि न्यूयॉर्क के किसी अपस्केल सबर्ब में उसी आकार के फ्लैट की कीमत 4,000 डॉलर (3,50,000 रुपए) होगी। दोनों के बीच 500 प्रतिशत का अंतर है!

आईएमएफ के अनुसार, पीपीपी द्वारा मापी गई भारत की प्रति व्यक्ति आय 2,940 डॉलर नहीं बल्कि 9,000 डॉलर ठहरेगी। ये सच है कि यह तब भी अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय (85,000 डॉलर) का लगभग दसवां हिस्सा ही होगी। लेकिन इससे कम से कम यह तो अधिक बेहतर तरीके से स्पष्ट होगा कि भारत अपनी विकास-यात्रा में कहां पर खड़ा है।

इसका मतलब यह नहीं है कि भारत उतना अच्छा कर रहा है जितना उसे करना चाहिए। हम और भी बहुत कुछ कर सकते हैं। भारत की प्रगति में एक रूकावट औपनिवेशिक मानसिकता से जुड़े प्रशासनिक-अवशेष हैं।

लेखक अनिल पद्मनाभन ने हाल ही में इस बात को अच्छी तरह से व्यक्त करते हुए कहा कि भारत को अंग्रेजों के दौर की संस्थाएं विरासत में मिली थीं, जिन्हें मुख्य रूप से भारत से पैसा वसूलने के लिए बनाया गया था। अफसोस की बात है कि आजादी के बाद भी ये कायम रहीं।

समय के साथ इनसे जुड़े समूहों ने इन संस्थाओं को मजबूत बनाते हुए इनमें किसी भी तरह के सुधारों का विरोध किया है। अगर भारत की ग्रोथ-स्टोरी को गति देना है और पेशेवर-आलोचकों के दुष्प्रचार का खुलासा करना है तो पहले अंग्रेजों के जमाने की सोच को बदलना होगा।

अगर भारत की ग्रोथ-स्टोरी को तेज गति देना है और पेशेवर-आलोचकों के दुष्प्रचार का खुलासा करना है तो अंग्रेजों के जमाने की सोच को बदलना होगा। हमें दूसरों से सीखने में हर्ज नहीं, पर अपनी बेबुनियाद निंदा स्वीकार नहीं है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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