मोहम्मद जमशेद का कॉलम:  परमाणु हथियारों की होड़ का नया दौर शुरू हो रहा है
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मोहम्मद जमशेद का कॉलम: परमाणु हथियारों की होड़ का नया दौर शुरू हो रहा है

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7 घंटे पहले

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मोहम्मद जमशेद चिंतन रिसर्च फाउंडेशन में विशिष्ट फेलो - Dainik Bhaskar

मोहम्मद जमशेद चिंतन रिसर्च फाउंडेशन में विशिष्ट फेलो

इमैनुएल मैक्रों ने जिस तरह से अपने यूरोपीय सहयोगियों को फ्रांसीसी परमाणु-क्षमता की सुरक्षा देने का प्रस्ताव रखा, वह एक नई विश्व-व्यवस्था की इबारत की तरह है। यूरोप के फिर से शस्त्रीकरण का आह्वान किया जाने लगा है। जबकि इस रणनीति को लगभग भुला दिया गया था कि परमाणु हथियार युद्धों को टालते हैं।

मानदंडों का यह उलटफेर यूएस-यूक्रेन-रूस समीकरण की सबसे आश्चर्यजनक घटनाओं में से है। मैक्रों ने यह आह्वान अमेरिका के इस आक्षेप के जवाब में किया था कि नाटो के यूरोपीय सदस्य अमेरिका जितनी जिम्मेदारी नहीं उठा रहे हैं, जिससे इस गठबंधन की प्रासंगिकता पर सवाल उठता है। इसके तुरंत बाद यूक्रेन को अमेरिका द्वारा दी जाने वाली सैन्य सहायताओं को निलंबित कर दिया गया।

इससे यूरोप की दो परमाणु शक्तियों- ब्रिटेन और फ्रांस को प्रतिक्रिया करने का कारण मिल गया। फ्रांस के प्रस्ताव के जवाब में पुतिन ने इतिहास का हवाला देते हुए चुटकी ली कि कुछ लोग भूल गए हैं नेपोलियन के साथ क्या हुआ था!

ब्रिटेन के साथ ही इटली ने भी रूस और यूक्रेन के बीच स्थायी शांति के लिए न्यायोचित समाधान की मांग करने वाले यूक्रेन के प्रति अपना समर्थन दोहराया। इस मामले में ताजातरीन खबर यह है कि ईयू के अध्यक्ष ने 800 बिलियन से 1 ट्रिलियन डॉलर तक की रक्षा व्यय योजना बनाई है, जिसे उसके 26 सदस्य देशों ने समर्थन दिया है। यह अमेरिका की नाटो से संभावित निकासी या उसकी फंडिंग कम करने का प्रत्युत्तर है।

मैक्रों से भी पहले जर्मनी के निर्वाचित-चांसलर फ्रेडरिक मर्ज यह सुझाव दे चुके थे कि वे यूरोप के दो परमाणु शक्ति-सम्पन्न राष्ट्रों ब्रिटेन और फ्रांस से बातचीत शुरू करेंगे, ताकि वे अपने ‘न्यूक्लियर-अम्ब्रेला’ को जर्मनी तक बढ़ा सकें।

पोलैंड और बाल्टिक देशों के प्रमुखों सहित ईयू के कई नेताओं ने इस प्रस्ताव का स्वागत किया। जबकि क्रेमलिन के प्रवक्ता पेसकोव ने फ्रांसीसी प्रस्ताव को ‘बहुत अधिक टकरावपूर्ण’ करार दिया और रूसी विदेश मंत्री लव्रोव ने इसे ‘रूस के खिलाफ खतरा’ बता दिया।

ईयू के सदस्य देशों के लिए परमाणु-विकल्प अब सामरिक मुद्दा बन गया है। वो देख रहे हैं कि नाटो के भविष्य पर खतरा मंडरा रहा है और सुरक्षा का सबसे महत्वपूर्ण ट्रांस-अटलांटिक कवर समाप्त हो सकता है। नाटो, डब्ल्यूएचओ और विदेशी सहायता के लिए फंडिंग में कटौती के निर्णय अमेरिकी नीति में अभूतपूर्व बदलाव है, जो सिस्टम को झकझोरने वाला है।

इस बदलते परिदृश्य का एक अक्सर अनदेखा कर दिया जाने वाला तत्व यह है कि यूरोप और अन्य देश राष्ट्रीय सुरक्षा हितों से जरूर संचालित होते हैं, लेकिन फिलहाल वे किसी एक संकट या बदलाव पर नहीं, बल्कि अनिश्चितता के हालात पर प्रतिक्रिया कर रहे हैं।

ऐसे में हमें नई विश्व-व्यवस्था के बारे में किसी भी घोषणा से बचना चाहिए। हमें यूक्रेन, गाजा, सूडान में पहले से चल रहे जटिल संघर्षों या दुनिया में मौजूद तनावों को भी ध्यान में रखना चाहिए। साथ ही ब्रिक्स, ईयू और नाटो जैसी बहुपक्षीय प्रणालियों में उथल-पुथल व सुधार की मांगों पर भी नजर रखना जरूरी है। जी-7, जी-20 के आगामी शिखर सम्मेलन दिलचस्प होंगे।

हमें यह भी समझना होगा कि आपस में जुड़ी हुई दुनिया के प्रति ट्रम्प 2.0 का दृष्टिकोण मुख्य रूप से उस जिम्मेदारी पर आत्म-निरीक्षण है, जिसे अमेरिका ने सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे पुराना लोकतंत्र होने के नाते विश्व युद्धों और शीत युद्ध के दौरान स्वीकारा था और एक उदार विश्व-व्यवस्था स्थापित करने की कोशिशें की थीं।

गठबंधनों, सहायता और विदेश नीति के जरिए अमेरिका द्वारा जताई जाने वाली जिम्मेदारी की भावना ने ही अर्थव्यवस्थाओं के उदारीकरण को प्रेरित किया था। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को मजबूत किया था। मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ सुरक्षा प्रदान की थी।

नाटो जैसे सुरक्षा-कवर प्रदान करके परमाणु निरस्त्रीकरण और विसैन्यीकरण के लिए सामाजिक अनुबंध बनाया था। संघर्षों में मध्यस्थता की थी। वित्तीय सहायताओं के जरिए विकासशील देशों का समर्थन किया था और क्वाड जैसे क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचे और आईएमईसी जैसी अंतरमहाद्वीपीय बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का निर्माण किया था।

लेकिन आज हम इतिहास के एक महत्वपूर्ण क्षण में हैं। हमने निकट-अतीत में दुनिया की महाशक्तियों द्वारा अपनी कूटनीति को इतने सार्वजनिक रूप से संचालित करते नहीं देखा है। यह अनिश्चय से भरा दौर है, और परमाणु-क्षमता को लेकर आज जो कुछ हो रहा है, उससे इसके बारे में बहुत कुछ पता चलता है।

परमाणु निरस्त्रीकरण के लंबे इतिहास के बाद अब फिर से कई गैर-परमाणु शक्ति-सम्पन्न देश अपनी रक्षा के लिए परमाणु क्षमता हासिल करना चाहते हैं। परमाणु हथियार संघर्ष को टालते हैं- यह तर्क फिर से प्रभावी होने लगा है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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