देवदत्त पट्टनायक2 घंटे पहले
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उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर। साल 2028 में इसी शहर में सिंहस्थ का आयोजन होगा।
प्रयागराज का महाकुम्भ भले ही खत्म हो गया हो, लेकिन इसकी चर्चा जारी है। इस पर आगे भी बातें होती रहेंगी। हमने इसी कॉलम में दो बार कुम्भ की बात की थी। आज तीसरी कड़ी में इसके बारे में कुछ और बातें करके इसको विराम देंगे।
कुम्भ मेले मुख्यतः उत्तर भारत में आयोजित किए जाते हैं, लेकिन दक्षिण भारत में भी कुम्भकोणम के महामहम कुंड में ऐसा एक जमावड़ा होता है। वह हर बारह वर्ष में माघ महीने में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के थोड़े समय बाद होता है। लेकिन यह मेला गंगा जैसी किसी नदी के तट पर नहीं होता, जो पारंपरिक तौर पर आर्यावर्त की निशानी है।
किसी समय हरिद्वार को गंगाद्वार कहा जाता था। महाभारत के अनुसार वैदिक पुजारी दक्ष और राख में लिपटे नागा साधुओं के देवता शिव सबसे पहले यहां आमने-सामने हुए थे। बाद में हरिद्वार क्षीरसागर के मंथन से निकलने वाले अमृत का प्रतीक बन गया। समुद्र मंथन की कथा वेदों में नहीं, बल्कि केवल महाभारत में पाई जाती है। महाभारत में ही ऋग्वेद के बृहस्पति ऋषि को जुपिटर ग्रह से जोड़ा गया है।
हरिद्वार के दक्षिण की ओर जहां यमुना और गंगा नदियां मिलती हैं, हर वर्ष माघ मेला आयोजित किया जाता था। यह मकर संक्रांति के अगले महीने में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के समय होता था। इस काल के जैन तीर्थंकर ऋषभ नाथ ने अपना पहला प्रवचन ‘समवसरण’ भी इसी स्थल पर दिया था। यह स्थल बुद्ध के पहले प्रवचन से भी जुड़ा है। समय के साथ माघ मेला जो बृहस्पति ग्रह के ऋषभ राशि में प्रवेश करने पर आयोजित किया जाता था, महत्वपूर्ण बन गया। उसे दूसरा कुम्भ मेला 1857 के बाद ही कहा जाने लगा।
इससे भी दक्षिण की ओर मालवा पठार पर और शिप्रा नदी के तट पर उज्जैन नगर स्थित है। शिप्रा नदी स्वयं चंबल नदी की उप-नदी है, जो उत्तर में बहकर गंगा नदी से मिलती है। उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर है और इस स्थल से कर्करेखा जाती है। यह माना जाता था कि इस रेखा के उत्तर में स्थित क्षेत्र आर्यावर्त था, क्योंकि उसके दक्षिण में वर्ष के कुछ दिनों पर परछाई दक्षिण पर पड़ती थी। आर्यावर्त में परछाई हमेशा उत्तर में पड़ती है।
विंध्य पर्वत के पार गोदावरी नदी के तट पर त्र्यम्बकेश्वर मंदिर है। यह कर्करेखा और फलस्वरूप मूल आर्यावर्त के बहुत नीचे है। जब बृहस्पति सिंह राशि में प्रवेश करता है, तब उज्जैन और नाशिक दोनों में कुम्भ मेले आयोजित किए जाते हैं। लेकिन इस मेले का पारंपरिक नाम सिंहस्थ है। सूर्य का स्थान निर्धारित करता है कि मेला इन दो जगहों में से कहा होगा: जब सूर्य कर्क राशि में होता है, तब मेला नाशिक में होता है और जब सूर्य मेष राशि में होता है तब मेला उज्जैन में होता है। ये मेले लगभग ग्रीष्म अयनांत और वसंत विषुव के समय होते हैं।
हम पाते हैं कि ये मेले नदियों, नक्षत्रों और ग्रहों से जुड़े हैं। वे शिशिर अयनांत, वसंत विषुव और ग्रीष्म अयनांत के निकट होते हैं, न कि शरद विषुव के निकट। इस प्रकार वर्ष का उज्ज्वल आधा भाग देवों से जुड़ा है। 500 सीई में उत्तरायण मकर संक्रांति के समय शुरू होता था, जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता था, अर्थात 14 जनवरी को। अब उत्तरायण 22 दिसंबर को शुरू होता है। तीन सप्ताहों का यह अंतर इसलिए है कि राशिचक्र पर आधारित मूल गणना 500 सीई में की गई थी। तबसे आज तक राशियां आगे आती गई हैं। उस समय के खगोलज्ञ यह खगोलीय घटना देख नहीं पाए थे। ब्राह्मणों का उत्तर से दक्षिण भारत तक प्रवसन इसी समय शुरू हुआ था। उस समय गुजरात और ओडिशा में ब्रह्मदेय भूमि अनुदान धीरे-धीरे होने लगे थे। दक्षिण भारत में ये भूमि अनुदान 800 सीई के बाद ही होने लगे।
इस प्रकार, कुम्भ मेले के सभी स्थल आर्यावर्त से जुड़े हैं और कर्करेखा के उत्तर में हैं। सभी गंगा और उसकी उपनदियों से जुड़े हैं। गोदावरी नदी के तट पर स्थित नाशिक इसका अपवाद है, क्योंकि वह कर्करेखा के दक्षिण में विंध्य पर्वत शृंखला और नर्मदा नदी के भी दक्षिण में स्थित है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। यह इसलिए कि नाशिक का कुम्भ मेला केवल 17वीं सदी में मराठा साम्राज्य के उभरने के समय शुरू हुआ, जब वह मुगलों को चुनौती दे रहा था। फलस्वरूप, इस समय आर्यावर्त की प्राचीन सीमाओं की उपेक्षा की गई और लोगों से कहा गया कि मनुस्मृति के अनुसार आर्यावर्त हिमालय से समुद्र तक फैला है।