देवदत्त पट्टनायक3 घंटे पहले
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तिरुपति मंदिर में आयोजित ब्रह्मोत्सवम (फाइल फोटो)।
भारत में मंदिर क्यों बनाए गए? उनके बनने से पहले लोग चट्टान, नदी और तारों को पूजते थे। कुम्भ मेला एक अच्छा उदाहरण है, जहां मानव-निर्मित संरचना के न होते हुए भी हिंदू परंपराएं निभाई जाती हैं। असम में कामाख्या और जम्मू में वैष्णोदेवी के मंदिरों से हमें पता लगता है कि ये ‘मंदिर’ वास्तव में सादी चट्टानों के चारों ओर बनाई गईं संरचनाएं हैं। इस प्रकार, मंदिर की सीमा के भीतर नैसर्गिक या प्राकृतिक संरचना को घिरा हुआ पूज्य स्थल निर्धारित किया जाता है।
सीमाओं का निर्माण पितृसत्ता की विशेषता है। यह इसलिए कि सीमाओं से वर्गीकरण का निर्माण होता है, जिससे विशिष्ट लोग शक्तिशाली बनते हैं, ठीक पितृसत्तात्मक समुदायों की तरह। मंदिर की दीवारों के माध्यम से मनोवैज्ञानिक सीमाएं व्यक्त की गईं। ये सीमाएं मंदिर तथा देवी-देवताओं के प्रकट होने से बहुत पहले सभ्यता की शुरुआत में उभरीं, जब प्राणियों से जन्मी मानवता अपने अस्तित्व को समझने का प्रयास कर रही थी।
भारत के प्रत्येक गांव में उर्वरता की ग्राम-देवी और संरक्षक ग्राम-देवता होते हैं। स्त्रैण देवत्व पोषण करता है और पौरुष देवत्व रक्षा। स्त्रैण देवत्व के लिए पौरुष देवत्व मात्र बीज प्रदान कर उसकी रक्षा करता है। कभी-कभार हनुमान, भैंरो बाबा और अय्यनार की तरह यह पौरुष देवत्व ब्रह्मचारी होता है। ब्रह्मचर्य के माध्यम से ये संरक्षक देवता देवी अर्थात उनकी माता के प्रति आदर व्यक्त करते हैं। ब्रह्मचर्य से वे शक्तिशाली भी बनते हैं।
ब्रह्मचर्य से अलौकिक शक्तियां मिलती हैं, इस विचार से मठवासी संप्रदाय जन्मे। साधुओं ने पानी पर चलने, हवा में तैरने, आकार बदलने और अमरत्व प्राप्त करने के प्रयास से नैसर्गिक शक्तियों को वश में करना चाहा। वे पीड़ा और भय से मुक्ति प्राप्त करने के लिए मन को भी वश में करना चाहते थे। इन सिद्धों ने योगिनियों की कामुकता का बहिष्कार किया।
बौद्ध धर्म भारत का सबसे पहला संगठित मठवासी संप्रदाय था। उसके विहारों में महिलाओं का प्रवेश करना वर्जित था। और जब अंततः उन्हें विहारों में आने दिया गया, तब उन्हें पुरुषों से कहीं अधिक नियमों का पालन करना पड़ा। यह इसलिए कि उन्हें अपनी तृष्णाओं को वश में करने के साथ-साथ यह निश्चित करना पड़ा कि वे पुरुषों को नहीं ‘लुभाती’। ये विहार चैत्यों के चारों ओर बनाए गए, जिनके भीतर के स्तूपों में बुद्ध के अवशेष होते थे। ये भारत की प्रारंभिक विशाल संरचनाएं थीं, जो चट्टानों में तराशी गईं। उससे पहले ग्राम देवी-देवताओं के देवालय केवल पेड़ों के नीचे, नदियों से लगकर और गुफाओं में पाए जाते थे।
बौद्ध विचारों का विरोध करने के लिए गृहस्थ जीवन के सुखों को दर्शाने वाले पत्थरों के मंदिर बनाए गए। मंदिर की विधियों में भी विभिन्न सांसारिक सुख व्यक्त किए गए। प्रतिष्ठापित देवी-देवताओं का तिरुपति के ब्रह्मोत्सवम जैसे भव्य समारोहों में विवाह होता था। पुजारी और देवदासियां उनकी देखभाल करते थे।
विहारों में जितनी शांति होती थी, उतनी ही चहल-पहल इन मंदिर परिसरों में होती थी। वहां भव्य स्तर पर सांसारिक सुख मनाए जाते थे। लेकिन बौद्ध विहारों की तरह मंदिर भी पुरुषों के नियंत्रण में थे। जब देवदासियां शक्तिशाली बन गईं, तब पुरुषों ने अंग्रेजों की मदद से उन्हें ‘वेश्या’ ठहराकर बाहर कर दिया।
विडंबना की बात यह है कि मंदिर, जो गृहस्थ जीवन के मूर्त रूप हैं, आज महंतों के नियंत्रण में हैं। ब्रह्मचर्य को धार्मिकता और शुद्धता का प्रतीक मानकर उसे शनि और अय्यप्पा जैसे ब्रह्मचारी देवताओं का मूर्त रूप दिया जाता है। और आधुनिक काल में गुरुओं के आश्रमों में संन्यासियों को ‘स्वामी’ और संन्यासिनों को ‘मां’ नामों से संबोधित करने से पुरुषों और महिलाओं की पारंपरिक भूमिकाओं की पुष्टि की जाती है।
आजकल हम 20वीं सदी के प्रारंभ में पुरुष प्रधान मठवासी हिंदू संघटनों द्वारा लोकप्रिय बनाए नव-वेदांत की नीरसता पसंद करते हैं। नव-वेदांत के अनुसार परमात्मा की कोई लैंगिकता नहीं होती है और इसलिए वह पुरुष और स्त्रियों को समान मानता है। मासिक धर्म का अनुभव करने वाली महिलाएं भले ही मंदिरों में प्रवेश करें, लेकिन इससे पितृसत्तात्मक विचारों को चुनौती नहीं दी जाती, जो ‘ब्रह्मचर्य’ को शुद्ध और ‘कामुकता’ को अशुद्ध मानते हैं।