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- Sheela Bhatt’s Column If BJP Wins, The Future Of Small Parties Will Become Uncertain
5 घंटे पहले
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शीला भट्ट वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली के चुनावों में अरविंद केजरीवाल की साख दांव पर है। अगर ‘आप’ चुनाव जीती तो इतनी बड़ी खबर नहीं बनेगी, जितनी उसके हारने पर बनेगी। चूंकि भाजपा पहले ही हरियाणा और महाराष्ट्र में जीत चुकी है, इसलिए भाजपा-विरोधी गुट इस पर एकमत हैं कि दिल्ली को भाजपा के हाथों में नहीं जाने दिया जा सकता, फिर भले ही वे केजरीवाल को नापसंद करते हों। अगर भाजपा दिल्ली भी जीत जाती है तो बिहार-यूपी का चुनावी माहौल बनाने के लिए उसे तगड़ा प्लेटफॉर्म मिल जाएगा।
माना जा रहा है कि दिल्ली में कांग्रेस थोड़ा-बहुत दम भी नहीं दिखा रही है, क्योंकि उसको ‘वोटकटवा’ पार्टी बनकर भाजपा को फायदा नहीं पहुंचाना है। राहुल गांधी दिल्ली की दो सभाओं में ‘स्वास्थ्यगत’ कारणों से नहीं जा पाए। जमीनी राजनीति की खबर रखने वाले मानते हैं कि अगर कांग्रेस दिल्ली में दलित और मुस्लिम वोट बांट देगी तो भाजपा की जीत तय हो जाएगी।
अरविंद केजरीवाल रेवड़ियों की राजनीति के माहिर है। आज भी उनके पक्ष में मजबूत मुद्दा ये है कि झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले गरीबों को बिजली के बिल नहीं आते हैं और महिलाएं सरकारी बस में मुफ्त में सवारी करती हैं।
जब महंगाई बढ़ रही हो और नौकरियां दुर्लभ हो तो सरकार से मिलने वाली मुफ्त सुविधाएं महत्वपूर्ण हो जाती हैं। लेकिन केजरीवाल अगर संघर्ष की स्थिति में हैं तो वो इसलिए कि वे छोटे कदम लेकर बड़ी पार्टी बनाने के बजाय बड़ी छलांग लगाकर सीधे राष्ट्रीय स्तर पर आना चाहते थे।
केजरीवाल की अपनी छवि अब ‘शीश महल’ के नाम से बदनाम हो चुके करोड़ों की लागत से निर्मित सरकारी निवास में रहने से खराब हुई। उनकी पार्टी की छवि को भी भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण नुकसान हुआ है। जिस पार्टी की बुनियाद ही भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलनों में रखी गई हो, उसको भाजपा ने भ्रष्टाचार में लिप्त दिखाकर ऐसा झटका दिया है कि ये चुनाव केजरीवाल ब्रॉन्ड की राजनीति पर रेफरंडम बन गए हैं।
ध्यान रहे कि भाजपा और कांग्रेस के बाद ‘आप’ ही ऐसी पार्टी है, जिसकी दो राज्यों में सरकारें हैं- दिल्ली और पंजाब। इसके बावजूद केजरीवाल दिल्ली में अपनी गद्दी बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। वो बचाव की स्थिति में तो हैं ही, इंडिया गठबंधन में टूट के कारण उनके पास कोई ठोस लाइफ-लाइन भी नहीं बची है।
भाजपा के पक्ष में ये बात भी है कि केजरीवाल एंटी-इंकम्बेंसी का सामना कर रहे हैं। जनता ने उनको दो-दो बार भारी बहुमत दिया था, लेकिन दिल्ली में अपेक्षा से कम सुधार हुआ है। जनता 70 में से 62 सीट और 54% वोट दे तो फिर वो अपेक्षा रखती है कि आप अपने प्रतिद्वंद्वी के साथ टकरावों को इतना भी न बढ़ाएं कि जनता को किए वादे पूरे ही न कर पाओ।
2015 में नरेंद्र मोदी और 2020 में अमित शाह ने दिल्ली में मोर्चा सम्भाला था। इतनी करारी हार के बाद 2025 में भी अगर भाजपा जोर लगा रही है तो आश्चर्य नहीं है। भाजपा के लिए दिल्ली जीतना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि केजरीवाल नागरिक सुविधा के छोटे-छोटे मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर की सुर्खियां बनाकर अपनी राजनीति चलाते हैं।
जो मुद्दे कलकत्ता, मुंबई और चेन्नई को भी परेशान करते हैं, केजरीवाल उन्हीं को उठाकर हेडलाइंस में बने रहते हैं। भाजपा को केजरीवाल से यह भी तकलीफ है कि जहां-जहां राहुल गांधी अपनी बात नहीं रख पाते हैं, उन सब मुद्दों पर केजरीवाल सही निशाना लगाते हैं।
दिल्ली में भाजपा का प्रचार-तंत्र महाराष्ट्र जैसा नहीं है। न ही उसके पास फडणवीस जैसा चेहरा है। भाजपा का चुनाव-प्रचार नकारात्मक है। भाजपा के उम्मीदवारों के सामने अंदरूनी टकराव भी काफी हैं। लेकिन भाजपा का निश्चय उसके घोषणा-पत्र में झलकता है। अगर ‘आप’ गरीबों को 2100 दे रही है तो भाजपा 2500 का वादा कर रही है।
ये दिखाता है कि भाजपा केजरीवाल को हराने के लिए कोई भी समझौता करने को तैयार है। कारण, पिछले 12 सालों में राष्ट्रीय जनमानस में मोदी को चुनौती देने वाले मैं केजरीवाल का नाम सबसे ऊपर है। अगर भाजपा दिल्ली जीत जाती है तो छोटी क्षेत्रीय पार्टियों का भविष्य अनिश्चित हो जाएगा।
नागरिक सुविधा के मुद्दे पर अपनी मजबूत इमारत बनाने वाली आम आदमी पार्टी अगर भाजपा के सामने खड़ी नहीं रह पाती है तो देश में लंबे समय तक राष्ट्रीय स्तर पर हम एक बहुत मजबूत भाजपा और उसके सामने कमजोर कांग्रेस को ही देखेंगे। दिल्ली में केजरीवाल के 10 साल भाजपा के साथ संघर्ष में ही चले गए। भाजपा ने उनको फंसाकर रखा। इस चक्रव्यूह से वे बाहर आने में सफल होते हैं या नहीं, ये चुनाव के नतीजों से पता चलेगा। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)