Muslims Situations in India: मुसलमानों की स्थिति को लेकर आई एक नई रिपोर्ट में मुसलमानों के लिए सरकार की नीतियों और कार्यक्रम का जायजा लिया गया है। इसके साथ ही भविष्य के रोडमैप को लेकर सुझाव भी दिए गए है। यह रिपोर्ट खास इसलिए भी है, क्योंकि 10 साल में मुसलमानों को लेकर यह पहला विस्तृत दस्तावेज है।
भारत में मुसलमानों के पिछड़ेपन और उनको लेकर सरकार के नजरिए की बात करें तो जून 2006 में यूपीए सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिए प्रधानमंत्री के 15 सूत्री कार्यक्रम को मंजूरी दी थी, जिससे अल्पसंख्यकों पर केंद्रित नीतियों और योजनाओं की एक सीरीज शुरू हो सके। उस साल जनवरी में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने नया अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय बनाया था।
यूपीए सरकार ने बनाई थीं कमेटियां
इससे पहले अक्टूबर 2004 और मार्च 2005 में, सरकार ने धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय आयोग (न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा आयोग) और भारत के मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति पर एक उच्च स्तरीय समिति (न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर समिति) नियुक्त की थी। सच्चर कमेटी ने 2006 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, तथा रंगनाथ मिश्रा आयोग ने 2007 में अपनी रिपोर्ट पेश की थी। दोनों ने दृढ़तापूर्वक सिफारिश की कि मुसलमानों के साथ हाशिए पर पड़े समुदाय के रूप में व्यवहार किया जाना चाहिए।
समय के साथ सरकार ने मुस्लिम समुदायों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए कई नीतिगत पहल की। 2013 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अमिताभ कुंडू के नेतृत्व में सच्चर समिति की रिपोर्ट और प्रधानमंत्री के नए 15 सूत्री कार्यक्रम के कार्यान्वयन का मूल्यांकन करने के लिए पोस्ट सच्चर मूल्यांकन समिति का गठन किया गया। इस समिति ने 2014 में अपनी रिपोर्ट पेश की थी।
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2014 में आई मोदी सरकार, योजनाओं का हुआ पुनर्गठन
2014 में ही सत्ता पर आई बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने सभी समूहों और समुदायों के सामाजिक समावेश के लिए सबका साथ सबका विकास के आदर्श को अपनाया। इसने नीतिगत ढांचे में महत्वपूर्ण बदलाव किए और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के नेतृत्व में मौजूदा कार्यक्रमों और योजनाओं का पुनर्गठन किया।
2014 के बाद के नीतिगत ढांचे में मुस्लिम सशक्तिकरण को विशेष चिंता के रूप में नहीं माना गया है। सकारात्मक कार्रवाई ढांचे पर बदली हुई आधिकारिक स्थिति, विशेष रूप से भारत के मुस्लिम समुदायों के संबंध में, सरकार की नीतिगत प्राथमिकताओं और कल्याणवाद के उसके दृष्टिकोण का विश्लेषण किए बिना नहीं समझी जा सकती।
नई रिपोर्ट में मुसलमानों की स्थिति को लेकर चार व्यापक विषय हैं।
पहला- यह राज्य की बदलती प्रकृति और सामाजिक कल्याण पर इसके आधिकारिक दृष्टिकोण की जांच करता है, और इन परिवर्तनों का वर्णन करने के लिए ‘धर्मार्थ राज्य’ शब्द का उपयोग करता है।
दूसरा- यह आधिकारिक दस्तावेजों, मुख्यतः नीति आयोग द्वारा प्रकाशित दस्तावेजों का आलोचनात्मक अध्ययन करके समकालीन नीतिगत ढांचे और मुसलमानों के लिए इसके निहितार्थों का खाका तैयार करता है।
तीसरा – यह विभिन्न स्रोतों से एकत्रित आधिकारिक आंकड़ों का विश्लेषण करके मुस्लिम समुदायों की शैक्षिक और आर्थिक स्थिति का सर्वेक्षण करता है।
चौथा- यह सीएसडीएस-लोकनीति अभिलेखागार से डेटा का उपयोग करके मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन और हाशिए पर होने के बारे में धारणाओं, अपेक्षाओं, आकांक्षाओं और चिंताओं का पता लगाता है।
क्या है मुसलमानों की शैक्षिक स्थिति?
मुस्लिम परिवारों के स्कूली आयु वर्ग के बच्चों की स्कूली शिक्षा के उच्च स्तरों में भाग लेने की संभावना सबसे कम है, यद्यपि हाल के वर्षों में उनकी भागीदारी में वृद्धि हुई है। सभी सामाजिक-धार्मिक समूहों (एसआरजी) में पोस्ट-सेकेंडरी स्तर पर मुस्लिम युवाओं की भागीदारी सबसे कम है। मुसलमानों में स्नातकों की हिस्सेदारी अभी भी कम है।
निजी स्कूली शिक्षा तक मुस्लिमों की पहुंच के मामले में मुस्लिम छात्र अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से थोड़े बेहतर हैं। हालांकि, वे हिंदू अगड़ी जातियों (HFCs) और हिंदू अन्य पिछड़ा वर्ग (HOBCs) से बहुत पीछे हैं। उच्च शिक्षा के स्तर पर, मुस्लिम छात्रों द्वारा एससी, एचओबीसी और एचएफसी की तुलना में टेक्नोलॉजी, प्रोफेशनल और मैनेजमेंट की शिक्षा चुनने वाले छात्रों की संख्या काफी है। घरेलू विशेषताओं और निवास स्थान में अंतर को ध्यान में रखने के बाद भी यह अंतर कम नहीं होता है।
नौकरी को लेकर क्या है स्थिति?
बिजनेस, नौकरी और संपत्ति के मुद्दे पर मुसलमानों का एक बड़ा मुश्किलों का सान अभाव का सामना कर रहा है, जबकि अन्य सभी वंचित एसआरजी ने समय के साथ रोजगार और नौकरी में खुद के स्तर को ऊपर उठाने में सफलता पाई है। नियमित वेतन वाली नौकरियों तक पहुंच के मामले में, उच्च शिक्षा के स्तर ने मुसलमानों को दूसरों के बराबर पहुँचने में मदद की है, लेकिन उच्च व्यवसायों तक पहुच के मामले में मुसलमान अभी भी काफी पीछे हैं।
अब सवाल यह है कि इस स्थिति से निपटने के लिए क्या किया जा सकता है। नई रिपोर्ट में मुसलमानों के लिए सकारात्मक कार्रवाई की संशोधित व्याख्या के लिए दो बड़े सिद्धांतों का प्रस्ताव किया गया है। इस पहला यह है कि सामाजिक नीति का मज़बूत धर्म निरपेक्षीकरण होना चाहिए। दूसरा यह कि मुस्लिम सांस्कृतिक पहचान का सकारात्मक गैर-भेदभावपूर्ण आधिकारिक चित्रण होना चाहिए। इन सिद्धांतों के आधार पर रिपोर्ट में सात विशिष्ट सिफारिशें की गई हैं।
क्या हैं सात सुझाव
1- ओबीसी श्रेणी के तहत धर्म-आधारित कोटा की कोई आवश्यकता नहीं है। ओबीसी का एक तर्कसंगत, धर्मनिरपेक्ष सब-कैटेगरी का बनानी चाहिए।
2- अनुसूचित जाति वर्ग में दलित मुस्लिम और दलित ईसाई भी शामिल होने चाहिए।
3- आरक्षण पर मौजूदा 50% की सीमा का तर्कसंगत आधार पर पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि सकारात्मक कार्रवाई के ढांचे में नए पिछड़े समुदायों को जोड़ा जा सके।
4- टीएडीपी और अल्पसंख्यक सघनता वाले जिले के परिवर्तन भी होना चाहिए।
5- उन व्यवसायों की समस्याओं के समाधान के लिए एक सचेत और सक्रिय नीति तैयार की जा सकती है जिनमें मुसलमानों का प्रतिनिधित्व असमान रूप से, यदि विशेष रूप से नहीं, तो भी है।
6- सामुदायिक सशक्तिकरण पर चर्चा में निजी क्षेत्र को शामिल किया जाना चाहिए।
7- मुस्लिम समुदाय के संगठनों, धर्मार्थ संस्थाओं और सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाना और उनकी ताकत में इजाफा करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इससे उन्हें चल रहे कल्याणकारी कार्यक्रमों और नीतियों के साथ जुड़ने में मदद मिल सकती है।
इस रिपोर्ट की बात करें तो इसे लेखक हिलाल अहमद, मोहम्मद संजीर आलम और नाज़िमा परवीन ने तैयार किया है। अहमद और आलम दिल्ली स्थित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं, जबकि परवीन नई दिल्ली स्थित पॉलिसी पर्सपेक्टिव्स फाउंडेशन (पीपीएफ) में एसोसिएट फेलो हैं।