एन. रघुरामन का कॉलम:  इस चैंपियंस ट्रॉफी में पैरेंट्स के लिए भी सबक छुपे हैं
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एन. रघुरामन का कॉलम: इस चैंपियंस ट्रॉफी में पैरेंट्स के लिए भी सबक छुपे हैं

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9 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

क्रिकेट फैमिली के मंझले बच्चे की आठ साल के अंतराल के बाद चैंपियंस ट्रॉफी के रूप में वापसी हुई है और आखिरकार उसे वह अपेक्षित अटेंशन मिल गई है। मनोविज्ञान में ‘मिडिल चाइल्ड सिंड्रोम’ नाम से थ्योरी है, जिसमें बड़े और सबसे छोटे भाई-बहनों के बीच का बच्चा उपेक्षित महसूस करता है और माता-पिता के प्यार और ध्यान से वंचित रहता है।

सबसे छोटे बच्चे (टी20) के जन्म के बाद मंझले (एक दिवसीय) को उसके पैरेंट्स यानी क्रिकेट फैंस से कम ही तवज्जो मिल रही थी और मुझे यह देखकर खुशी हुई कि इस रविवार को करोड़ों लोग टीवी सेट्स के सामने बैठकर मैच देख रहे थे, जबकि इस दिन सबसे ज्यादा शादियां थीं और इस कारण लोगों को सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए बाहर निकलना पड़ा।

जैसे बच्चा परीक्षाओं, खासकर वार्षिक परीक्षाएं करीब आने पर अत्यधिक दबाव महसूस करता है, तनावग्रस्त हो जाता है, कम सोता है, कम ध्यान केंद्रित कर पाता है, ऐसे ही हमारे क्रिकेटरों को भी तनाव होता है। लेकिन जिस तरह जिम्मेदार अभिभावक परीक्षा के दौरान तनाव के लक्षण पहचान लेते हैं, जो उसके बच्चे के लिए बहुत जरूरी है, क्या क्रिकेट फैंस खिलाड़ियों के चेहरे पर तनाव को पहचान पाते हैं?

मेरा जवाब नहीं में है। स्टेडियम में बैठकर हमारे चेहरे के भाव अप्रत्यक्ष रूप से उनके शरीर पर भी असर डालते हैं। इस रविवार मैं चेन्नई में था और दोपहर 12 बजे से पहले का समय पारिवारिक शादी समारोह में बिताया और बाकी के समय में तीन रिश्तेदारों के यहां गया। इन तीनों घरों में अलग-अलग आयु वर्ग के क्रिकेट फैंस थे।

पहले विकेट की साझेदारी जब 100 रन पर पहुंची, तो जिस तरह दुबई इंटरनेशनल स्टेडियम में दर्शक नाचे, वैसे ही इन तीन घरों में बैठे प्रशंसक भी नाच उठे। भारतीय बल्लेबाजी शुरू होने से पहले हर विशेषज्ञ उन चार छूटे कैचों को कोस रहा था। उनका मानना ​​था कि 220 से ऊपर का कोई भी लक्ष्य भारत पर भारी प्रेशर बनाएगा और हम न्यूजीलैंड की तरह प्रेशर झेलने में प्रशिक्षित नहीं हैं।

और तभी मेरे मन में सवाल आया कि उन पर प्रेशर कौन डालता है? हम पैरेंट्स (यानी क्रिकेट फैंस) ही तो दबाव डालते हैं। विराट कोहली के आउट होने पर सिर्फ स्टेडियम ही नहीं बल्कि हर घर में मातम छा गया। और जब भारत ने मात्र 18 रन पर तीन विकेट खो दिए तो खुशियों से भरा घर और स्टेडियम भी तनाव से भर गया।

कुछ लोग अपने-अपने भगवान के आगे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे, तो कुछ लोगों ने एक्सपर्ट बनकर टीका-टिप्पणी शुरू कर दी कि स्पिनर्स को कैसे खेलें और तेज गेदबाजों को कैसे, मानो उनकी सलाह मैदान में सीधे खिलाड़ियों तक पहुंच रही हो।

संक्षेप में कहूं तो किसी में भी धैर्य नहीं था। जैसा हम जानते हैं कि पैरेंटिंग में भावनाओं- प्रतिक्रियाओं पर काबू रखते हुए धैर्य रखना भी एक क्षमता है, फिर हालात जो भी हो, फिर हम खेल प्रेमी, खासकर जब स्टेडियम में दर्शकों के रूप में जाते हैं तो हमारा व्यवहार कैसा होता है?

जैसे हम बच्चों की सीखने की प्रक्रिया, उनकी गलतियों व उनके विकास की धीमी गति (कभी-कभी) होने पर भी नकारात्मक टिप्पणी या ऐसे अनुशासनात्मक कदम न उठाते हुए धैर्य रखते हैं, क्या ये हम दर्शकों की जिम्मेदारी नहीं है कि हम भी खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करें, भले ही खेल में या बीच के ओवरों में कुछ गलतियां हुई हों?

सोचिए, अगर खिलाड़ी आपकी बातें सुन सकते, तो क्या इससे उनका मनोबल बढ़ता? 50 ओवर के मैच और 15 साल की बुनियादी शिक्षा दोनों के लिए समान धैर्य की जरूरत होती है। बच्चा पहले कुछ मासिक परीक्षाओं (प्रारंभिक ओवर) में अच्छा करेगा, बीच की परीक्षाओं (मध्यम ओवर) में कम अच्छा करेगा तथा अंतिम परीक्षा (अंतिम ओवर) में जब उसे एहसास होगा कि उसे तेजी से आगे बढ़ना है, तो वह बेहतर प्रदर्शन करेगा।

फंडा यह है कि यदि हम क्रिकेट फैंस इस बात पर सहमति रखते हैं कि धैर्य से ही जीत हासिल की जा सकती है, तो माता-पिता के रूप में भी हमें यही सीख लेनी चाहिए, खासकर वर्तमान समय में चल रहे बच्चों के फाइनल एग्जाम के बीच।

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