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- N. Raghuraman’s Column Do We Look At Our Sundays Through Monday’s Glasses?
2 घंटे पहले
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एन. रघुरामन मैनेजमेंट गुरु
जरा कल्पना करें। रविवार की सुबह आप उठते हैं तो पाते हैं घर साफ-सुथरा है। हर हफ्ते की तरह चीजों को व्यवस्थित करने का काम नहीं है। हर कोई अपने समय पर उठा है और अच्छे मूड में है। दिन आसान और सहज लग रहा है। आज कोई ऐसा सामाजिक आयोजन भी नहीं है, जहां जाना जरूरी हो। जैसे ही आप दो कप गर्म पानी पीकर दैनिक भास्कर पढ़ना समाप्त करते हैं, सभी उठकर तैयार हो जाते हैं।
आप उन्हें सरप्राइज देते हुए कहते हैं- चलो पार्क चलते हैं। उत्साहित बच्चे स्पोर्ट्स शूज पहन लेते हैं और कुछ आउटडोर गेम्स की चीजें उठा लेते हैं। आप सभी पार्क में एक घंटा पसीना बहाते हैं। तब बच्चे कहते हैं भूख लगी है। आप बगल के साउथ इंडियन रेस्तरां में गरमा-गरम इडली-वड़ा कॉम्बो खाने जाते हैं। बच्चे अपनी पसंद की डिश चुनते हैं, जैसे “मैसूर मसाला-बाहर घी डोसा’, जिसके बारे में आपने अब तक नहीं सुना होगा।
इस मसाला डोसा में “बाहर’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया जाता है क्योंकि इसमें मसाला बाहर होता है न कि डोसे के अंदर, जिससे यह थोड़ा लिजलिजा हो जाता है। इस कारण दूसरा बच्चा सादा घी रवा डोसा मंगवाता है और दोनों आपस में मसाला बांट लेते हैं। आप खुश होते हैं, क्योंकि होटल और ग्राहक दोनों ने ही रचनात्मकता दिखाई है। आप घर लौटकर आते हैं और जैसे ही बच्चे अपने लेगो गेम्स में व्यस्त हो जाते हैं, उनके पैरेंट्स ब्रेड बनाना शुरू कर देते हैं।
आलू और कुछ सब्जियां उबालकर मैश किए हुए आलू, उबली हुई सब्जियां और लेट-लंच के लिए कुछ ग्रिल्ड हैवी आइटम तैयार करते हैं। अपार्टमेंट में बहुत अच्छी खुशबू आने लगती है। बीच-बीच में आप टीवी पर चल रहे क्रिकेट को देखते रहते हैं। परिवार दोपहर में थोड़ी देरी से खाना खाता है। थोड़ी झपकी लेने के बाद परिवार पास के मंदिर में जाने के लिए तैयार हो जाता है और आरती में भाग लेता है। सूप, ब्रेड टोस्ट और कुछ चॉकलेट के हलके डिनर के बाद परिवार जल्दी सो जाता है।
लेकिन हकीकत में, इस तरह का रविवार तो अब एक दुर्लभ लग्जरी ही है। जरूरी काम हमारे आराम में दखलंदाजी करते रहते हैं। पैरेंट्स को सोमवार की सुबह की तैयारी में जुटना पड़ सकता है या किसी अंतरराष्ट्रीय क्लाइंट की विजिट की तैयारी के लिए रविवार को भी काम पर जाना पड़ सकता है। या उन्हें फ्लू, सर्दी या खराब मूड से जूझना पड़ सकता है। ऊर्जा का स्तर घट जाता है, जिससे उनकी योजनाएं बेपटरी हो जाती हैं।
बच्चे तैराकी, स्केटिंग या क्रिकेट कोचिंग जैसी अपनी पहले से निर्धारित सप्ताहांत की योजनाओं को टाल नहीं पाते। वे दिन गए जब पिता छुट्टियों के दिन घर के पौधों की देखभाल करते थे और मां बुनाई कर रही होती थीं। 1990 के दशक के पैरेंट्स के लिए आराम का मतलब था अपनी रोजमर्रा की गति को धीमा कर देना।लेकिन आज एक आधुनिक परिवार अपने छुट्टी के दिनों के बारे में बहुत सोचने और योजनाएं बनाने के बावजूद कभी भी उनमें ठीक से आराम नहीं कर पाता।
अकसर रविवार को भी कामकाज के चश्मे से देखा जाता है और रविवार को जीने के बजाय लोग खुद को सोमवार के लिए रिचार्ज करने की कोशिश करने लगते हैं। आज भी हमारे यहां अपने लिए आराम एक अमीर व्यक्ति का विचार माना जाता है। हमारे पास अपना कोई इंडियन-सिएस्टा या रविवार नहीं होता। आज किसी भी परिवार से बात करें, बेचैनी भरी कहानियां मिलेंगी।
विकसित देशों में भी, सर्वेक्षणों से पता चलता है कि परिवार दिन में 18 मिनट से ज्यादा आराम करने की कोशिश नहीं करते। परिवारों के पास पिछले हफ्ते की थकान से उबरने की कोई योजना भी नहीं होती। और तनाव गहराता जा रहा है। आधुनिक भौतिकवादी दुनिया में, ज्यादातर परिवार अपने जीवन के ज्यादातर समय आराम को दरकिनार करते हैं। याद रखें आप एक विफल रहे रविवार को अफोर्ड नहीं कर सकते!
फंडा यह है कि जब आधुनिक बच्चे बड़ों के पैर छुएं और आशीर्वाद मांगें तो उनसे कहें : “तुम्हारा फैमिली-संडे सुखद हो!’ ऐसा करके आप उनके मन में अपनी गति को धीमा करने का बीज बो रहे होंगे और जल्द ही वे ऐसा चाहने भी लगेंगे!