रतिन रॉय का कॉलम:  मनमोहन सिंह में ऐसे गुण थे, जो आज दिखाई नहीं देते हैं
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रतिन रॉय का कॉलम: मनमोहन सिंह में ऐसे गुण थे, जो आज दिखाई नहीं देते हैं

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6 घंटे पहले

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रतिन रॉय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य - Dainik Bhaskar

रतिन रॉय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य

डॉ. मनमोहन सिंह का मूल्यांकन आज के परिप्रेक्ष्य से किया जाएगा और उनके उत्तराधिकारियों के कार्यों के आधार पर भी। यह परिप्रेक्ष्य डॉ. सिंह की विरासत के बारे में ऐसे महत्वपूर्ण गुणों को प्रकट करता है, जो अब दिखाई नहीं देते।

वे एक नीति-निर्माता के रूप में अपने काम में निष्णात थे। वे अपनी उम्र की तीसरी दहाई से ही आर्थिक सलाहकार के रूप में सेवाएं दे रहे थे। मुख्य आर्थिक सलाहकार, योजना आयोग के सदस्य-उपाध्यक्ष और आरबीआई गवर्नर के रूप में वे नीतिगत नेतृत्व के क्षेत्र में रहे।

इनमें से प्रत्येक भूमिका में उन्होंने नए मानक स्थापित किए, फिर चाहे वह 1970 के दशक में बेकाबू मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना हो, भारतीय वित्तीय प्रणाली के कामकाज के तरीके को बदलने के लिए सुखमय चक्रवर्ती समिति की स्थापना करना हो या सातवीं पंचवर्षीय योजना का जोर भौतिक निवेश से उत्पादकता और तकनीकी क्षमता बढ़ाने पर स्थानांतरित करना हो। साउथ कमीशन में भी उन्होंने उत्तर-औपनिवेशिक देशों के समूह को एक नई पहचान देने पर जोर दिया, ये अब ‘ग्लोबल साउथ’ कहलाते हैं।

केंद्र में मंत्री या प्रधानमंत्री बनने से पूर्व के अपने 20 वर्षीय करियर में उन्होंने लगातार ये सभी काम किए और अपनी उपलब्धियों का श्रेय लेने या मांगने के बजाय अच्छी टीमों का निर्माण किया। यह आज की नेतृत्व-शैली के बिलकुल विपरीत है, जहां हर उपलब्धि को लीडर की प्रतिभा के मास्टर स्ट्रोक के रूप में पेश किया जाता है।

अर्थशास्त्री अकसर व्यंग्य में टिप्पणी करते हैं कि डॉ. सिंह अर्थशास्त्री की तुलना में बेहतर राजनेता थे। लेकिन ऐसा इसलिए था, क्योंकि वे अपनी विश्लेषणात्मक क्षमताओं को लेकर आश्वस्त थे और अपने क्षितिज को व्यापक बनाने में सक्षम थे।

उन्होंने यह दो तरीकों से किया। पहला, आर्थिक नीति और आर्थिक-कूटनीति में महारत हासिल करके। दूसरा, परिदृश्य में मौजूद हर नीतिगत-अर्थशास्त्री के साथ मिलकर काम करने की कला विकसित करके, चाहे वे उनसे वरिष्ठ हों, जैसे बागीचा मिन्हास, अर्जुन सेनगुप्ता, सुखमय चक्रवर्ती, उनके साथी हों, जैसे सी. रंगराजन, बिमल जालान, आईजी पटेल, या उनके बाद आने वाले हों, जैसे विजय केलकर, मोंटेक अहलूवालिया, कौशिक बसु, रघुराम राजन।

सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा को पोषित करने की यह क्षमता नीति-जगत में एक दुर्लभ गुण है, जो केवल उन लोगों में होती है, जो भीतर से असुरक्षित महसूस नहीं करते और जिन्हें इतिहास के निर्णय पर धीरज भरा विश्वास होता है। वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री होने के बावजूद वे कभी निर्वाचित राजनेता नहीं रहे थे।

इन कठिन भूमिकाओं में वे आश्चर्यजनक रूप से सफल रहे। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उन्हें इस बात की जानकारी थी कि उन्हें वह खास राजनीतिक काम क्यों सौंपा गया- वित्त मंत्री के रूप में भारत की स्वतंत्रता के बाद से सबसे बुरे आर्थिक संकट से निपटने के लिए, और प्रधानमंत्री के रूप में एक ऐसी समावेशी, गठबंधन सरकार चलाने के लिए, जो चुनावी-दुष्चक्रों से स्वयं को बचा सके। उन्होंने दोनों ही जिम्मेदारियां सफलतापूर्वक निभाईं।

कांग्रेस पार्टी ने आर्थिक समृद्धि की विचारधारा को बहुत पहले ही त्याग दिया था। यही कारण था कि आर्थिक समृद्धि को बढ़ावा देने के उनके कार्यों का बहुत कम विरोध हुआ। वे कई वैश्विक संकटों को भी दूर करने में सक्षम रहे। उनके निर्वाचित नेता नहीं होने ने उन्हें राजनीतिक असुरक्षा और ईर्ष्या से बचाया।

उन्होंने अपनी दुर्जेय नीति और कूटनीतिक कौशल का उपयोग करके रिकॉर्ड स्थिर आर्थिक विकास किया। महत्वपूर्ण नीतिगत सुधार लागू किए। भारत को वैश्विक आर्थिक संकटों से बचाया। और अमेरिका व पड़ोसियों से संबंधों को सुधारा। उन्होंने यह सब अपने पूर्ववर्तियों या सहयोगियों को दोष दिए बिना किया।

एक पेशेवर राजनेता नहीं होने के कारण वे अपने से कम शक्तिशाली आलोचकों के खिलाफ प्रतिशोधपूर्ण शक्ति-प्रयोग करने के इच्छुक नहीं थे। उनके समय में पीएमओ ने जेएनयू प्रशासन को यह बताने के लिए हस्तक्षेप किया कि उनके दौरे के दौरान विरोध-प्रदर्शन करने वाले छात्रों को निष्कासित न किया जाए।

उन्होंने अपने राजनीतिक रूप में काम करते हुए भी बहुत कुछ सीखा। इससे उनकी सूक्ष्म राजनीतिक संवेदनशीलता का पता चलता है, जो निरंतर विकसित होती चली गई थी। मुझे याद है कि उन्होंने हममें से कुछ लोगों को धैर्यपूर्वक समझाया था कि भारत में आर्थिक नीति सशक्तीकरण (एम्पॉवरमेंट) और अधिकार-सम्पन्नता (एनटाइटलमेंट) के बीच एक बारीक संतुलन है।

डॉ. मनमोहन सिंह इन मायनों में जरूर भाग्यशाली थे कि उन्हें कुछ जरूरी काम करने के लिए चुना गया था। लेकिन उन्होंने खुद को सौंपे गए उन कार्यों को अच्छे से कर दिखाया- यह अपने आपमें कोई मामूली बात नहीं थी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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