देवदत्त पट्टनायक10 घंटे पहले
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मप्र के उज्जैन में राजा विक्रमादित्य की 30 फीट ऊंची भव्य प्रतिमा।
लगभग 1,000 वर्ष पहले लोगों को एक अच्छे राजा की विशेषताओं के बारे में समझाने के लिए ‘सिंहासन बत्तीसी’ नामक संस्कृत कहानियों का संग्रह अस्तित्व में आया था। इन कहानियों के अनुसार एक बार राजा भोज को प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य का सिंहासन मिला था। लेकिन जब-जब उन्होंने उस पर बैठने का प्रयास किया, तब-तब सिंहासन ने उनसे पूछा कि क्या वे उस पर बैठने की पात्रता रखते हैं? क्या उनमें विक्रमादित्य की विशेषताएं हैं, जिन्हें यह सिंहासन स्वयं देवताओं से मिला था।
ये कहानियां पढ़कर लगता है कि उदारता राजा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता होती है। अधिकांश कहानियों में राजा विक्रमादित्य ने देवताओं, संन्यासियों और पिशाचों से मिले शानदार उपहार स्वेच्छापूर्वक लोगों को भेंट में दिए। इन वस्तुओं से वे धन और यौवन प्राप्त कर सकते थे तथा स्वस्थ भी बन सकते थे। लेकिन उन्होंने ये वस्तुएं गरीब ब्राह्मणों और व्यापारियों, दरबारियों, छोटे राजाओं, भटके हुए यात्रियों, यहां तक कि अपने शत्रुओं को भी भेंट में दीं।
विक्रमादित्य इतने उदार इसलिए थे क्योंकि वे अपनी संपत्ति और सफलता से तटस्थ थे और मानते थे कि संपत्ति का लोगों में प्रवाह होना आवश्यक है। एक कहानी की सीख यह है कि संपत्ति जमा करना केवल तब लाभदायक होता है, जब वह किसी संकट में काम आती है।
अगली विशेषता साहस का महत्व लगभग आधी कहानियों में समझाया गया है। विक्रमादित्य अपना सिर संन्यासियों की मदद करने के लिए एक देवी को, तालाब भरने के लिए संघर्ष कर रहे वास्तुकारों को, यहां तक कि टूटी हुईं मूर्तियों के सुधार के लिए भी देने के लिए तैयार थे। उन्होंने दानवों से लड़कर श्रापित महिलाओं को बचाया। इतना ही नहीं, वे तो एक कड़ाही में उबलते तेल में छलांग मारने के लिए भी तैयार थे, ताकि एक नौजवान अपनी क्रूर प्रेयसी यानी एक राजकुमारी से विवाह कर सके।
उनमें लोगों की मदद करने की तीव्र इच्छा थी। इसलिए और उनकी उत्सुकता के कारण वे ऊंचे पर्वतों पर स्थित ऋषियों से मिले, भयंकर प्राणियों से भरीं अंधेरी गुफाओं में गए, अत्यधिक उष्ण क्षेत्रों तक की यात्रा की और सबसे अंधेरे पाताल लोक तक भी गए।
राजा की तीसरी विशेषता है – बिना किसी संकोच के क्षमा करना और किसी की आलोचना न करना। विक्रमादित्य ने किसी का तिरस्कार नहीं किया। एक बार एक जादूगर एक भूत के हाथों विक्रमादित्य को हानि पहुंचाना चाहता था। लेकिन विक्रमादित्य ने जादूगर को चकमा दे दिया और भूत उनकी रक्षा करने लगा। अंत में उन्होंने जादूगर को क्षमा कर दिया। दूसरी कहानी में एक ईर्ष्यालु राजा ने विक्रमादित्य जितना उदार बनने हेतु अपने आप को हर दिन आग लगाई, ताकि उसे डायनों से सोना मिल सके। विक्रमादित्य ने उस पर दया करके अपने आप को जलाने का प्रस्ताव किया। इससे डायनों और ईर्ष्यालु राजा दोनों ने उनकी प्रशंसा की।
लेकिन विक्रमादित्य लोगों की प्रशंसा नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने कई परोपकार छिपकर और श्रेय लिए बिना किए। वे साधारण कपड़ों में राज्यभर में घूमते थे। उन्हें लोगों को दायित्व सौंपना भाता था, इसलिए वे छह महीने राज करते थे और शेष छह महीने संन्यासियों से बात करते हुए विलक्षण राज्यों की यात्रा करते थे। उनकी अपेक्षा थी कि उनकी अनुपस्थिति में उनके दरबारी उनका राज्य संभालेंगे।
उन्होंने गुणवान लोगों का महत्व समझा और उनकी आर्थिक मदद करके उन्हें बढ़ावा दिया। इस प्रकार, इन लोगों ने उनके राज्य की समृद्धि में योगदान किया। विक्रमादित्य जानते थे कि एक अच्छा राजा अपनी महिमा के लिए नहीं, बल्कि अपनी प्रजा को संतुष्ट रखने के लिए परिश्रम करता है। जब उनके ज्योतिषियों ने राज्य के खराब भविष्य की भविष्यवाणी की तो वे नक्षत्रों तक से लड़ने के लिए तैयार थे। उन्हें राजसी सुखों का भोग करना भी भाता था, लेकिन वे ऐसा अपने राजसी कर्तव्यों को पूरा करने के बाद ही करते थे।
जब विक्रमादित्य को पता चला कि उनकी मृत्यु शालीवाहन नामक नौजवान के हाथों लिखी है, तब उन्होंने शालीवाहन को द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकारा। कुम्हार के इस पुत्र को सांपों से आशीर्वाद मिला था कि वे उसके लिए लड़ सकते थे। विक्रमादित्य में सांपों के शत्रु गरुड़ों का आवाहन करने की क्षमता थी। लेकिन वे नहीं चाहते थे कि शालीवाहन की नियति में वे कोई बाधा लाए। वे वृद्ध थे और शालीवाहन नौजवान था। वे जानते थे कि वे अमर नहीं हैं और इसलिए एक अच्छे राजा की तरह उन्हें पता था कि अगली पीढ़ी के लिए जगह बनाना ही उचित है।