3 घंटे पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
देश में 19 महीनों के दो उथलपुथल भरे कालखंड ऐसे रहे हैं, जिन्होंने तीन पीढ़ियों के हमारे अतीत को परिभाषित किया, हमारे वर्तमान को आकार दिया, और वे हमारे भविष्य को भी अपने परस्पर विरोधी तरीकों से प्रभावित करते रहेंगे। इनमें से एक कालखंड 25 जून 1975 से 18 जनवरी 1977 का इमरजेंसी का दौर था।
अनुमान लगाएं कि दूसरा कालखंड कौन-सा होगा। इसके लिए हमारे प्रधानमंत्रियों के कार्यकालों पर नजर डालिए- नहीं, नेहरू, इंदिरा, वाजपेयी, मोदी, वीपी सिंह, देवेगौड़ा, गुजराल, चरण सिंह में से किसी के दौर पर नहीं।
मैं सुझाव दूंगा कि आईएएस से लेखक बने संजीव चोपड़ा ने लाल बहादुर शास्त्री की जो जीवनी लिखी है उसे पढ़ डालिए। ‘द ग्रेट कंसीलिएटर : लाल बहादुर शास्त्री एंड द ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ इंडिया’ नाम की यह जीवनी हाल में ही प्रकाशित हुई है।
नेहरू की मृत्यु के बाद 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 तक ताशकंद में अपनी दु:खद मृत्यु तक शास्त्री 19 महीने प्रधानमंत्री रहे। आप सवाल कर सकते हैं कि मैं इन 19 महीनों को भारत के राजनीतिक विकास के लिए इमरजेंसी के 19 महीनों जैसा ही मगर उलटे रूप में निर्णायक क्यों मानता हूं?
इसके लिए याद कीजिए, जब भारत को एक युद्ध (सितंबर 1965) लड़ना पड़ा था, स्थानीय स्तर पर टैंकों से टक्कर (कच्छ, अप्रैल-जुलाई 1965) लेनी पड़ी, खाद्य संकट झेलना पड़ा, कठिन राजनीतिक परिवर्तन से गुजरना पड़ा, और हमारे इतिहास के इतने छोटे किसी और दौर में इतने ज्यादा संस्थानों का निर्माण कभी नहीं हुआ, जितना इन 19 महीनों में हुआ।
शास्त्री के कार्यकाल की सबसे प्रमुख बात बेशक 22 दिनों का युद्ध था, जिसे उन्होंने भारी प्रतिकूलताओं के बीच लड़ा और जिसमें सैद्धांतिक जीत हासिल की, हालांकि सैन्य इतिहास लिखने वाले इसे अक्सर गतिरोध कहते हैं। लेकिन हर मोर्चे पर बेहतर हथियारों और तीन गुना ज्यादा हौसले से लैस ज्यादा ताकतवर दुश्मन से लड़कर गतिरोध हासिल करना जीत से कम नहीं होता।
शास्त्री की विरासत पर ताशकंद में हुए शांति समझौते, और उनकी उस त्रासद यात्रा का साया अनुचित रूप से हावी हो जाता है। उन्होंने जो युद्ध लड़ा वही उनका सच्चा योगदान है। फील्ड मार्शल अय्यूब खान और उनके छुटभैये जुल्फिकार अली भुट्टो को 1962 की लड़ाई में शिकस्त से हताश और उथल-पुथल से गुजर रही भारतीय सेना काफी कमजोर नजर आई।
1963 में श्रीनगर में हुए हजरतबल कांड से भी उनका हौसला बढ़ा। नेहरू के बाद शास्त्री को सत्ता सौंपे जाने के बीच के दौर को उन्होंने राजनीतिक अस्थिरता का दौर मान लिया, और भारत की सैन्य तैयारी तथा हौसले का जायजा लेने के लिए उन्होंने कच्छ के रण में हमले किए।
चोपड़ा ने दस्तावेजों के हवाले से लिखा है कि पाकिस्तान ने कच्छ के रण में पैटन टैंकों का इस्तेमाल करके अपने अमेरिकी आकाओं को टटोला। उन दोनों के बीच समझौता हुआ था कि इन टैंकों का भारत के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। लेकिन अमेरिका ने जब महज कुछ उपदेश झाड़ने के सिवा कुछ नहीं किया तो पाकिस्तान को लगा कि वह कश्मीर में बड़ी चाल चल सकता है।
नतीजतन, दो महीने बाद ही ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ हुआ और 10,000 से ज्यादा हथियारबंद घुसपैठिए कश्मीर में भेज दिए गए। योजना यह थी कि ये गिरोह भारतीय सेना को घाटी में जब ध्वस्त कर देंगे तब ‘ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम’ के तहत निर्णायक हमले के लिए जम्मू के अखनूर सेक्टर में टैंकों से धावा बोला जाएगा।
लेकिन उन्होंने मुकाबले में खड़े नेता के हौसले का अंदाजा लगाने में भूल कर दी। प्रायः फौजी जनरल, खासकर पाकिस्तानी जनरल आम जनता को तुच्छ मानते हैं। शास्त्री की कद-काठी और उनकी शालीनता के कारण उनका मुगालता और मजबूत ही हुआ। लेकिन पांच फीट दो इंच वाली उस काया में अविश्वसनीय रूप से मजबूत संकल्प वाला देशभक्त मौजूद था।
शास्त्री ने 3 सितंबर को मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई और पाकिस्तान को जवाब देने की व्यापक योजना बना ली गई। तय किया कि पाकिस्तान की आक्रमण शक्ति को ध्वस्त किया जाए और सिर्फ जरूरी इलाके पर कब्जा किया जाए, जिसे युद्ध जीतने के बाद लौटा दिया जाए।
उस युद्ध के नतीजे को लेकर भारत में काफी आम सहमति है। लेकिन उड़ी सेक्टर में हाजी पीर दर्रे को वापस लौटाने को लेकर नाराजगी भी है। वैसे, संयुक्त राष्ट्र युद्धविराम प्रस्ताव में मांग की गई थी कि दोनों पक्ष 5 अगस्त वाली युद्धविराम रेखा से पीछे चले जाएं। इसका अर्थ यह था कि पाकिस्तान छंब से भी हट जाए। उसने कश्मीर पर कब्जा करने का अंतिम मौका गंवा दिया।
शास्त्री की मौत अनसुलझी पहेलियों में शामिल है। चोपड़ा की किताब दो बातें स्पष्ट करती है। एक तो यह कि शास्त्री को उससे पहले दो बार दिल का दौरा पड़ चुका था। एक बार 1959 में और फिर प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से कुछ दिन पहले, 5 जून 1964 को।
वह स्टेटिन, स्टेंट, बाइपास सर्जरी से पहले का दौर था। तब तीसरे दौरे के बाद बच पाना मुश्किल था। दूसरी बात यह कि जिस दिन ताशकंद समझौते पर दस्तखत हुए थे, उस दिन शास्त्री शुरू में काफी खुश थे। लेकिन जब उन्हें देश में हो रही प्रतिक्रियाओं, अखबारों में हाजी पीर के ‘सरेंडर’ को उछाले जाने का पता चला तो उनका मन टूट गया। और चंद घंटों में ही वे चल बसे।
शास्त्री की राजनीति के जिन पहलुओं की कम चर्चा हुई है उनमें एक यह भी है कि वे नेहरूवादी वामपंथी झुकाव वाले नेता नहीं थे। आप उन्हें थोड़े दक्षिणपंथी झुकाव वाले मध्यमार्गी नेता कह सकते हैं। आप उनके उस जोरदार भाषण को भी याद कर सकते हैं जो उन्होंने कम्युनिस्ट नेता हिरेन मुखर्जी के इस आरोप के जवाब में दिया था कि वे नेहरू के रास्ते से अलग जा रहे हैं। उन्होंने कहा था कि रास्ते से अलग होने की शिकायत कम्युनिस्ट सिस्टम में की जाती है, लोकतंत्र में तो परिवर्तन की बात की जाती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)