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- Shekhar Gupta’s Column Why Are We Afraid Of Buying Weapons?
3 घंटे पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
भारत के एअर चीफ मार्शल एपी सिंह लगातार स्पष्ट रूप से बता रहे हैं कि भारतीय वायुसेना अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले संख्या और टेक्नोलॉजी के मामले में कितनी पिछड़ी हुई है। उन्होंने सरकारी उपक्रम एचएएल को कैमरों और माइक्रोफोन के मामले में भी आईना दिखाया। उनका यह रुख इस लिहाज से नया है कि अब तक हम सेना प्रमुखों को अपने ऊपर दया जताते हुए यही कहते हुए सुनते रहे हैं कि ‘हमारे पास जो है उसी से लड़ेंगे’।
वायुसेना प्रमुख ने जो चुप्पी तोड़ी है, उस पर उम्मीद के मुताबिक प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। सेना के अभावों की बात जिसने भी उठाई, उसे फौरन आयातित माल का भूखा बताया जाता रहा है। आरोप लगाया जाता है कि भारत को विकास करने से रोकते हुए उसे बेहद महंगे आयातों पर निर्भर बनाने की कोशिशें की जा रही हैं। इस बीच ट्रम्प ने आग में एफ-35 नाम का घी डाल दिया है।
भारत में रक्षा संधि सामान बेहद कम बनाए जाते हैं, और उनमें से अधिकतर संयुक्त उपक्रम के तहत होते हैं। 200 से ज्यादा सुखोई 30-एमकेआई और न जाने कितने जगुआर या मिग विमान बनाने के बाद क्या हम आज पूरी तरह अपने बूते पर एक भी विमान बना सकते हैं? हम तो चीनियों की तरह रिवर्स इंजीनियरिंग (किसी सामान के निर्माण के पेंच को समझने के लिए उसे तोड़कर फिर से जोड़ने की प्रक्रिया) भी नहीं कर सकते।
‘हथियारों का टॉप आयातक’ वाला ठप्पा हमने खुद अपने ऊपर लगवाया, और यह भारतीय सिस्टम के लिए एक अभिशाप है। आयातों का आकलन डॉलर के 1990 वाले स्थिर मूल्य के आधार पर करने वाली स्टॉकहोम की संस्था ‘सिपरी’ का अनुमान है कि भारत ने 2015-24 के बीच दस साल में 23.7 अरब डॉलर मूल्य के हथियार आयात किए, जो कि कुल ग्लोबल हथियार आयात के 9.8 फीसदी के बराबर है।
सरकार ने राफेल विमानों, अपाचे, एम-777 माउंटेन होवित्जर, हार्पून मिसाइल, एमएच-60 रोमियो नौसैनिक हेलिकॉप्टर, एमक्यू-9बी ड्रोन आदि की सीधी खरीद का जो फैसला किया, वह क्या वैसा ही उचित और साहसी फैसला था जैसे कोई सीनियर डॉक्टर रोगी की गिरती हालत को देखकर तुरंत कई तरह की सर्जरी का फैसला करता है?
भारत की रक्षा योजना के विरोधाभासों पर ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। मेरा पसंदीदा ग्रंथ है- ‘आर्मिंग विदाउट एमिंग’, जिसे दिवंगत स्टीफन पी. कोहेन और सुनील दासगुप्त ने मिलकर लिखा है। यह किताब भारत में रणनीतिक सोच तथा नियोजन की कमी की संस्कृति पर अफसोस जताती है।
उनका कहना है कि भारतीय सैन्य सिद्धांत पूरी तरह तात्कालिक सामरिक जरूरतों और घटनाओं पर आधारित रहा है। इस मामले में मेरा अपना नजरिया कुछ पुराने निजी दस्तावेजों पर आधारित है। यह कागज के एक टुकड़े पर पूर्व रक्षा मंत्री जसवंत सिंह द्वारा पेंसिल से लिखा एक नोट है।
उन्होंने यह कागज 1994 में साल्जबर्ग में रणनीतिक मामलों पर एक गंभीर विचार-विमर्श के दौरान मुझे मुस्कराते हुए थमा दिया था। सम्मेलन में जनरल सुंदरजी ने भारत के रणनीतिक सिद्धांत की खामियों पर विचार रखे थे।
जसवंत सिंह ने मुझे बढ़ाए कागज पर लिखा था : ‘भारत के सैन्य व रणनीतिक सिद्धांत की समीक्षा करने वाली संसदीय समिति का मैं अध्यक्ष था। हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी कोई रणनीति नहीं है, हमारा कोई सिद्धांत नहीं है’।
अब यह स्थिति बदली है, इसका कोई प्रमाण नहीं है। बदली होती तो हम फ्रंटलाइन फाइटरों की इस तरह सीधी खरीद नहीं करते, मानो हम हैमलेज में खिलौने खरीद रहे हों। या हम एक बार में कुछ सैकड़ा स्पाइक एंटी-टैंक मिसाइलें, थलसेना के लिए 60,000 के बैचों में राइफलें आदि न खरीदते। हमारी रक्षा खरीद का इतिहास ऐसा ही रहा है। राजीव गांधी का 1985-89 वाला दौर इस मामले में अपवाद है। लेकिन यह बोफोर्स नामक भूत छोड़ गया।
इस भूत के कारण पैदा हुए डर ने खरीद को न्यूनतम स्तर पर पहुंचा दिया। वरना बालाकोट के बाद मिग-21 बाइसन को एफ-16 विमानों के झुंड में क्यों शामिल कर दिया जाता? याद कीजिए, कारगिल युद्ध में वायुसेना को किस तरह नुकसान झेलना पड़ा था जब उसके दो मिग विमान और एक एमआई-17 लड़ाकू हेलिकॉप्टर नष्ट हो गए, उनके चालक दल के (उसमें से एक को छोड़, जिसे युद्धबंदी बना लिया गया) सभी सदस्य मारे गए।
शक्तिशाली टोही विमान फोटो-रीकॉनेसां कैनबरा का इंजिन नाकाम हो गया था, लेकिन कुशल चालक उसे वापस लौटा लाया था। इसके बाद उसे रिटायर कर दिया गया। इन चारों पर कंधे से दागी गई मिसाइलों से हमला किया गया था।
वायुसेना की नींद टूटी तो उसने रातों में काफी ऊंचाई पर उड़ान भरने वाले अपने मिराज विमानों के लिए इजरायल से रातोरात लेजर उपकरण खरीदे। इसके बाद तस्वीर बदल गई। यह सब हमारी ‘चलता है’ वाली प्रवृत्ति की मिसालें देने के लिए नहीं कहा गया है।
यह सिर्फ यह सवाल पूछने के लिए कहा गया है कि आखिर हमें खरीद से डर क्यों लगता है? 1987 के बाद से इस डर का एक कारण तो बोफोर्स का भूत है। रक्षा संबंधी हर एक खरीद से परहेज किया जाता है, उसे लटकाया जाता है, और पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस के शब्दों में कहें तो उससे जुड़ी फाइल को अनिर्णय के अटूट घेरे में डालने के लिए ‘ऑर्बिट में फेंक दिया जाता है’। यह नई दिल्ली को हथियार के डीलरों, बिचौलियों के खेल का मैदान बना देता है।
दस साल में हमने रक्षा संबंधी जितना आयात किया, वह औसतन एक साल में सोने के हमारे आयात के मूल्य के आधे से भी कम के बराबर है। यह रिलायंस इंडस्ट्रीज के आयात बिल के 5 फीसदी, और इंडियन ऑइल के आयात बिल के 8 फीसदी से भी कम के बराबर है। रक्षा संबंधी सालाना आयात का हमारा 2.3 अरब डॉलर का बिल खाद के हमारे आयात के बिल के एक चौथाई से भी कम है। किसानों के लिए आयात जवानों के लिए किए जाने वाले आयात से ज्यादा पवित्र क्यों माना जाता है?
रक्षा-सौदों को लेकर अपने संकोच को हराना होगा रक्षा संबंधी आयातों के साथ विवाद इसलिए नहीं जुड़ जाता कि वे बड़े आकार के होते हैं। बल्कि इसलिए जुड़ता है कि वे छोटे आकार के और टुकड़ों में होते हैं, और कई वेंडर इस डर से खेलते हैं। हमें इस डर को परास्त करना होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)