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- Shekhar Gupta’s Column Modi And Trump’s Styles On Bureaucracy Are Different
3 घंटे पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
इतिहास के जिस मोड़ पर ट्रम्प ने अपनी नौकरशाही में काटछांट का अधिकार इलॉन मस्क को सौंप दिया है, उसी मोड़ पर मोदी सरकार ने 8वें वेतन आयोग के गठन की अधिसूचना जारी कर दी है। पहला कदम सरकारी तंत्र को हल्का करने और खर्चे बचाने का नाटकीय मगर अराजक प्रयास है, तो दूसरा कदम सरकार के विस्तार और वेतन आदि पर खर्च को बढ़ाने वाला है, और यह 2029 के चुनाव को ध्यान में रखकर किया गया है। दोनों नेताओं ने लगभग एक तरह के वादे करके चुनावों में जीत हासिल की है। यहां हम मोदी के ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ वाले नारे की याद दिलाना चाहेंगे।
शासन और उसके खर्चों के मामले में दोनों नेताओं के नजरिए में नाटकीय अंतर का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है? ट्रम्प सरकारी बाबू को एक बुराई के रूप में देखते हैं। यह कि चुनाव कोई भी जीते-हारे, ये बाबू अपना कार्यकाल पूरा करके ही जाते हैं। ये शासन करते हैं, या सरकार को निर्धारित नियमों और मानकों का पालन करते हुए शासन चलाने में मदद करते हैं।
इसका अर्थ यह है कि इन्हें किसी राजनीति या विचारधारा के प्रति वफादारी नहीं रखनी है। ट्रम्प की नजर में यह गलत है। यह अनिर्वाचित लोगों की सत्ता है जिसे कोई चुनौती नहीं दी जाती, इसलिए वे इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे।
वहीं मोदी के लिए सरकारी अधिकारी निरंतरता, परिवर्तन और निष्ठा के प्रतीक हैं। प्रशासनिक ढांचा और इसके लोग जब तक चालू राजनीति के हिसाब से काम करते हैं, तब तक उनसे कोई समस्या नहीं है। यही वजह है कि मोदी राज में हमने नौकरशाही को ताकतवर बनते देखा है। मोदी राज में सरकार के ढांचे में जबर्दस्त तेजी से विस्तार हुआ है। देखिए कि नई दिल्ली क्षेत्र (केवल लुटियन्स जोन ही नहीं) में कितने नए भवन खड़े हो गए हैं।
उधर अमेरिका में एफबीआई के नवनियुक्त मुखिया वॉशिंगटन में इसके मुख्यालय को लाइब्रेरी में बदल देने और इसके अधिकतर कर्मचारियों की छुट्टी करने या उन्हें अमेरिका में दूसरी जगहों (खासकर अलाबामा) पर भेजने के वादे करके मशहूर हो चुके हैं। यह ऐसा ही होगा, जैसे भारत में सीबीआई, एनआईए के कर्मचारियों का तबादला कुशीनगर अथवा कुर्नूल कर दिया जाए!
एनआईए को नेहरू स्टेडियम के पास सीजीओ कॉम्प्लेक्स में एक नया और भव्य भवन मिला है। दिल्ली पुलिस को बीच लुटियन्स जोन में शानदार ‘घर’ तो मिला ही है, उसने आईटीओ क्षेत्र में अपने पुराने भवन को भी नहीं छोड़ा है। ईडी को भी अपना भवन मिल गया है, जो खान मार्केट के पास लोकनायक भवन के इसके पुराने दफ्तर से कहीं बेहतर है। एनसीआरबी और बीपीआर-एंड-डी को महिपालपुर में नए भवन मिले।
मानवाधिकार आयोग आईएनए मार्केट के पीछे बारापुला फ्लाईओवर के किनारे लाल पत्थर से बनी नई सिटी में खड़े टॉवरों में से एक में चला गया है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल नई दिल्ली का विशाल कार्यालय बन गया है, जिसे कोपर्निकस मार्ग पर अपना भवन तो मिला ही है, देशभर में इसके जोनल कार्यालय भी उग आए हैं।
नौकरशाही की इन नई विशेष शाखाओं के कामकाज का लेखाजोखा रखने की किसी को परवाह नहीं है। पर्यावरण की हालत और उस पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के असर को तो आप खुद ही देख सकते हैं। इसी तरह, केंद्र और राज्यों में नई संस्थाओं (जरूरी नहीं कि उनकी स्थापना मोदी राज में हुई हो) का जबर्दस्त विस्तार और ‘भवनीकरण’ हुआ है। इनमें सूचना आयोग (राज्यों में इसके दफ्तर हैं), लोकपाल व राज्यों में लोकायुक्त कार्यालयों और कई ट्रिब्यूनल को गिन लीजिए।
अब जरा यह देखें कि सरकार क्या कर रही है। एअर इंडिया की बिक्री को छोड़ दें तो बाकी लगभग सभी ‘सीपीएसई’ (केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रम) मोदी राज में न केवल जस के तस बने हुए हैं बल्कि उनमें करदाताओं के पैसे का नया निवेश भी किया गया है।
इस साल के बजट में ‘सीपीएसई’ में इक्विटी निवेश के लिए 5 ट्रिलियन रुपए रखे गए हैं। राहुल गांधी तो सार्वजनिक उपक्रमों को ‘औने-पौने बेच देने’ की आलोचना करते ही रहते हैं, खुद मोदी कई बार कह चुके हैं कि उनके राज में इन उपक्रमों ने बढ़िया काम किया है। केंद्र ने विशाखापट्टनम् इस्पात कारखाने में अतिरिक्त 11,440 करोड़ का निवेश करने का वादा किया है, जबकि दो दशकों से यह निजीकरण की सूची में था।
आखिर, केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों ने कितना अच्छा काम किया है? निफ्टी और सेंसेक्स ने तो शिखर पर पहुंचने के बाद 13 फीसदी का गोता लगाया लेकिन ‘सीपीएसई’ सूचकांक तो रसातल में चला गया। 13 लाख करोड़ रुपए यानी भारत के रक्षा बजट के दोगुने के बराबर का नुकसान हुआ है।
इतनी रकम से दक्षिण और उत्तर भारत को जोड़ने वाली बुलेट ट्रेन चलाई जा सकती थी। पीएम किसान सम्मान की राशि में कई गुना वृद्धि की जा सकती थी। या एफ-35 फाइटर विमानों के दो स्क्वाड्रन खरीदकर ट्रम्प को खुश किया जा सकता था। फिर भी 120 अरब डॉलर बच जाते।
सरकारी सेवाओं में चुनावों के जरिए भर्ती नहीं होती, लेकिन सरकारी सेवकों को पुरस्कार या सजा जरूर दी जा सकती है। ‘सरकारी’ रोजगार कार्यक्रमों के तहत जो नई संस्थाएं बनाई गई थीं, उन्हें बंद करने की प्रक्रिया अर्थशास्त्री संजीव सान्याल के नेतृत्व में चलाई जा रही है।
यह अच्छी पहल है। याद रहे हमारे ‘सिस्टम’ में किसी की नौकरी नहीं जाती, बस उसे कहीं और ‘स्थापित’ कर दिया जाता है। जबकि पंजाबी में कहावत है- ‘जेहदे लाहौर भैड़े, वो पेशावर वी भैड़े’ (जो लाहौर के लिए बेकार है वह पेशावर में भी बेकार ही साबित होगा)।
आज मंत्रिमंडल में विदेश मंत्रालय से लेकर पेट्रोलियम, रेलवे, आईटी, सूचना-प्रसारण आदि प्रमुख मंत्रालयों की कमान पूर्व सरकारी अफसर संभाल रहे हैं। शासन का ढांचा खड़ा करने का ट्रम्प और मोदी का तरीका एक-दूसरे के बिलकुल विपरीत है।
मंत्रालयों की कमान सरकारी अधिकारियों के हाथों में आज विदेश से लेकर पेट्रोलियम, रेलवे, आईटी, सूचना-प्रसारण आदि प्रमुख मंत्रालयों की कमान पूर्व सरकारी अफसर संभाल रहे हैं। शासन का ढांचा खड़ा करने का ट्रम्प और मोदी का तरीका एक-दूसरे के बिलकुल विपरीत है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)